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शनिवार

चर्चा में..

वक्त बूँदों के उत्सव का था
बूँदें इठला रही थी
गा रही थीं बूँदें झूम - झूम कर
थिरक रही थीं
पूरे सवाब में

दरख्तों के पोर - पोर को
छुआ बूँदों ने
माटी ने छक कर स्वाद चखा
बूँदों का

रात कहर बन आयी थी बूँदे

सबेरे चर्चा में बारिश थीं

बूँदें नहीं !


- अरविन्द श्रीवास्तव.

2 टिप्‍पणियां:

डा राजीव कुमार ने कहा…

सबेरे चर्चा में बारिश थीं

बूँदें नहीं ! वाह भाई, वाह...क्या खूब..लिखा है आपने।

सुभाष नीरव ने कहा…

छोटी लेकिन एक बेहतरीन कविता, अन्तिम पंक्ति मन को कहीं गहरे स्पर्श कर गई!
सुभाष नीरव
09810534373
www.kathapunjab.blogspot.com

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