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गुरुवार

बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव में ‘मड़ई’ की महत्ता !


बाज़ारवाद की अपसंस्कृति ने हमारी लोक परंपरा व संस्कृति को जिस तरह से मर्माहत करना प्रारंभ  किया है यह भविष्य के भयावह दृश्य का रिहर्सल-मात्र है। साजिशें रची जा रही है, आततायी लुभावने शब्दों के साथ सुंदर, सम्मोहक खिलौने लिए खड़े हैं दरवाजे पर। हमारी लोक परंपराओं को बाज़ार का रास्ता दिखाया जा रहा है। सुमधुर भोजपुरी गीत बाजार की भाषा बन अपसंस्कृति व उदंडता की परवान चढ़ रहे हैं, उदाहरण अनेक हैं। भाषा-संस्कृति और परम्परा सभी कुछ बाजार से मिल रही चुनौतियों के समक्ष पराजित मुद्रा में असहाय दिख रही हैं। वक्त बाजार की इन विकृतियों से बचने का है। वक्त सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रतिरोध का है। लिहाजा ‘मड़ई’ सदृश्य स्वस्थ-सुरूचि समपन्न साहित्य व लोक संस्कृति पर एकाग्र पत्रिका की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। ‘मड़ई’, रजत जयंती अंक के संपादकीय में संपादक- डा. कालीचरण यादव ने बाजारवाद की विकृतियों से उत्पन्न खतरे से आमजन को अगाह करने का विनम्र प्रयास किया है। संपादक ने लोक संस्कृति पर केन्द्रित उत्कृष्ट शोधपरक रचनाओं का इस अंक में समावेश कर अंक को सार्थक बनाया, संपादक का यह श्रमसाध्य कार्य स्तुत्य है।
‘मड़ई’, संपादकः डा. कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना बिलासपुर(छ.ग.) फोन- 07752 223206., पृ.- 268, निःशुल्क वितरण ! 

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