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बुधवार

न्यू मीडिया कंपोजिट मीडिया है: देवेन्द्र कुमार देवेश


 देवेन्द्र कुमार देवेश, उप संपादक











साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली.


नुष्यमात्र की भाषायी अथवा कलात्मक अभिव्यक्ति को एक से अधिक व्यक्तियों तथा स्थानों तक पहुँचाने की व्यवस्था को ही मीडिया का नाम दिया गया है। पिछली कई सदियों से प्रिंट मीडिया इस संदर्भ में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जहाँ हमारी लिखित अभिव्यक्ति पहले तो पाठ्य रूप में प्रसारित होती रही तथा बाद में छायाचित्रों का समावेश संभव होने पर दृश्य अभिव्यक्ति भी प्रिंट मीडिया के द्वारा संभव हो सकी। यह मीडिया बहुरंगी कलेवर में और भी प्रभावी हुई। बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी साथ-साथ अपनी जगह बनाई, जहाँ पहले तो श्रव्य अभिव्यक्ति को रेडियो के माध्यम से प्रसारित करना संभव हुआ तथा बाद में टेलीविजन के माध्यम से श्रव्य-दृश्य दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रसारण संभव हो सका। प्रिंट मीडिया की अपेक्षा यहाँ की दृश्य अभिव्यक्ति अधिक प्रभावी हुई, क्योंकि यहाँ चलायमान दृश्य अभिव्यक्ति भी संभव हुई। बीसवीं सदी में कंप्यूटर के विकास के साथ-साथ एक नए माध्यम ने जन्म लिया, जो डिजिटल है। प्रारंभ में डाटा के सुविधाजनक आदान-प्रदान के लिए शुरू की गई कंप्यूटर आधारित सीमित इंटरनेट सेवा ने आज विश्वव्यापी रूप अख्तियार कर लिया है। इंटरनेट के प्रचार-प्रसार और निरंतर तकनीकी विकास ने एक ऐसी वेब मीडिया को जन्म दिया, जहाँ अभिव्यक्ति के पाठ्य, दृश्य, श्रव्य एवं दृश्य-श्रव्य सभी रूपों का एक साथ क्षणमात्र में प्रसारण संभव हुआ।
जी हाँ, यह वेब मीडिया ही न्यू मीडियाहै, जो एक कंपोजिट मीडिया है, जहाँ संपूर्ण और तत्काल अभिव्यक्ति संभव है, जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभी अभिव्यक्यिों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसी अभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्ति को उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह साथ-साथ देख पाना भी संभव है। इतना ही नहीं, यह मीडिया लोकतंत्र में नागरिकों के वोट के अधिकार के समान ही हरेक व्यक्ति की भागीदारी के लिए हर क्षण उपलब्ध और खुली हुई है।वेब मीडियापर अपनी अभिव्यक्ति के प्रकाशन-प्रसारण के अनेक रूप हैं। कोई अपनी स्वतंत्र वेबसाइटनिर्मित कर वेब मीडिया पर अपना एक निश्चित पता आौर स्थान निर्धारित कर अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकाशित-प्रसारित कर सकता है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी वेबसाइटें उपलब्ध हैं, जहाँ कोई भी अपने लिए पता और स्थान आरक्षित कर सकता है। अपने निर्धारित पते के माध्यम से कोई भी इन वेबसाइटों पर अपने लिए उपलब्ध स्थान का उपयोग करते हुए अपनी सूचनात्मक, रचनात्मक, कलात्मक अभिव्यक्ति के पाठ्य अथवा ऑडिया/वीडियो डिजिटल रूप को अपलोड कर सकता है, जो तत्क्षण दुनिया में कहीं भी देखे-सुने जाने के लिए उपलब्ध हो जाती है।
बहुत-सी वेबसाइटें संवाद के लिए समूह-निर्माण की सुविधा देती हैं, जहाँ समान विचारों अथवा उद्देश्यों वाले लोग एक-दूसरे से जुड़कर संवाद कायम कर सकें। वेबग्रुपकी इस अवधारणा से कई कदम आगे बढ़कर फेसबुक और ट्विटर जैसी ऐसी वेबसाइटें भी मौजूद हैं, जो प्रायः पूरी तरह समूह-संवाद केन्द्रित हैं। इनसे जुड़कर कोई भी अपनी मित्रता का दायरा दुनिया के किसी भी कोने तक बढ़ा सकता है और मित्रों के बीच जीवंत, विचारोत्तेजक, जरूरी विचार-विमर्श को अंजाम दे सकता है। इसे सोशल नेटवर्किंग का नाम दिया गया है।वेब मीडियासे जो एक अन्य सर्वाधिक लोकप्रिय उपक्रम जुड़ा है, वह है ब्लॉगिंगका। कई वेबसाइटें ऐसी हैं, जहाँ कोई भी अपना पता और स्थान आरक्षित कर अपनी रुचि और अभिव्यक्ति के अनुरूप अपनी एक मिनी वेबसाइट का निर्माण बिना किसी शुल्क के कर सकता है। प्रारंभ में वेब लॉगके नाम से जाना जानेवाला यह उपक्रम अब ब्लॉगके नाम से सुपरिचित है। अभिव्यक्ति के अनुसार ही ब्लॉग पाठ्य ब्लॉग, फोटो ब्लॉग, वीडियो ब्लॉग (वोडकास्ट), म्यूजिक ब्लॉग, रेडियो ब्लॉग (पोटकास्ट), कार्टून ब्लॉग आदि किसी भी तरह के हो सकते हैं। यहाँ आप नियमित रूप से उपस्थित होकर अपनी अभिव्यक्ति अपलोड कर सकते हैं और उस पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं को इटरैक्ट कर सकते हैं। ब्लॉगनिजी और सामूहिक दोनों तरह के हो सकते हैं। यहाँ अपनी मौलिक अभिव्यक्ति के अलावा दूसरों की अभिव्यक्यिों को भी एक-दूसरे के साथ शेयर करने के लिए रखा जा सकता है।
बहुत से लोग ब्लॉगको एक डायरी के रूप में देखते हैं, जो नियमित रूप से वेब पर लिखी जा रही है, एक ऐसी डायरी, जो लिखे जाने के साथ ही सार्वजनिक भी है, सबके लिए उपलब्ध है, सबकी प्रतिक्रिया के लिए भी। लेकिन मैं समझता हूँ कि ब्लॉगनियमित रूप से लिखी जानेवाली चिट्ठी है, जो हरेक वेबपाठक को संबोधित है, पढ़े जाने के लिए, देखे-सुने जाने के लिए और उचित हो तो समुचित प्रत्युत्तर के लिए भी। ब्लॉगको डायरी कहा जाना बिलकुल उचित नहीं, क्योंकि डायरी हमेशा आत्मावलोकन और आत्मालोचन के लिए लिखी जाती है, जो सर्वथा निजी भी होती है।
और यहीं जब मैं यह कह रहा हूँ कि ब्लॉगडायरी नहीं चिट्ठी है, तभी इसका स्वरूप और दायित्वपूर्ण भूमिका भी निश्चित हो जाते हैं; क्योंकि वेब मीडियापर प्रस्तुत होनेवाली सामग्री पर कोई अंकुश नहीं, यहाँ कोई भी, कुछ भी, कैसा भी अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है; इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि न्यू मीडियाका यह स्वरूप और इसकी प्रकृति ही इसके महत्त्व और भूमिका के निर्धारण के लिए हमें अनेक सूत्र देते हैं। मित्रो, समुद्र जितना शांत होता है, उतना ही तूफान की प्रबल आशंका होती है; जो पक्ष जितना सकारात्मक होता है, उसकी नकारात्मकता भी उतनी ही प्रबल होती है; इसलिए वेब मीडियाअपनी उपयोगिता में जितना ज्यादा प्रभावी है, यदि कोई इसका दुरुपयोग करे तो इसका प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। इसलिए इस मीडिया का प्रयोक्ता जो भी व्यक्ति है, उसे ही अपनी सचेत और दायित्वपूर्ण भूमिका निर्धारित करनी होगी और मीडिया के सकारात्मक प्रयोग पर बल देना होगा। दुनिया में वेब मीडियाका प्रथम प्रयोग अमेरिका में 29 अक्तूबर 1989 को अर्पानेटके नाम से हुआ। भारत में इसका आरंभ 1994 में हुआ, जिसे 15 अगस्त 1995 को व्यावसायिक रूप दिया गया। वेबसाइटों पर निःशुल्क रूप में निजी अभिव्यक्ति का आरंभ 1994 में geocities.com एवं tripod.com के द्वारा हुआ। पहला अंग्रेजी ब्लॉग 1997 में शुरू हुआ, जबकि हिन्दी में ब्लॉगिंग की शुरुआत श्री आलोक कुमार द्वारा 2 मार्च 2003 को हुई। वर्तमान में अनुमानतः 15 करोड़ ब्लॉग हैं। भारत में प्रायः सवा करोड़ ब्रॉडबैंड उपभोक्ता हैं, लेकिन हिन्दी ब्लॉगों की संख्या कुछेक हजार ही है, जो अपेक्षाकृत बहुत ही कम है। फिर भी हिन्दी ब्लॉगिंगके भविष्य को लेकर निराश होने की जरूरत नहीं है। इंटरनेट-साक्षरता और उपयोग में निरंतर वृद्धि ही होनी है। मोबाइल के माध्यम से प्राप्त इंटरनेट सुविधाओं ने भी न्यू मीडियामें प्रवेश, प्रयोग और उपयोग को व्यापक बनाया है। हिन्दी के ब्लॉग निजी और सामूहिक तौर पर निरंतर तैयार किए जा रहे हैं। एग्रीगेटर और सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से उन्हें लोकप्रिय बनाने के प्रयत्न भी किए जा रहे हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस न्यू मीडियाने आकर्षित ही नहीं, वरन प्रभावित भी किया है। अधिकांश हिन्दी ब्लॉगनिजी अभिव्यक्तियाँ हैं, बहुत-सी सामूहिक। इन ब्लॉगों के माध्यम से सूचना, समाचार, साहित्य और कला की तमाम अभिव्यक्तियाँ वेबपाठकों को परोसी जा रही हैं। साहित्य की हर विधा, कला का हर रूप, समाचार-विचार के तमाम विन्दु और सूचनाओं का भंडार इनके माध्यम से हमारे सामने आ रहा है। कुछ ब्लॉग साहित्यिक पत्रिका के रूप में हैं, तो कुछ समाचारपत्रिका के रूप में। यहाँ लेखक एवं प्रस्तोता पाठक/दर्शक/श्रोता सभी अपने सोच-विचारों, वाद-प्रतिवादों के साथ एक साथ-एक जगह समेकित रूप में उपस्थित हैं-एक-दूसरे से संवाद करते हुए, जो संवाद सर्वसुलभ भी हैं।
चूँकि अभिव्यक्ति के संपादन, प्रकाशन और प्रसार के अंकुश से युक्त सीमित मीडिया की अपेक्षा इस न्यू मीडिया ने अभिव्यक्ति के निरंकुश प्रसार की असीमित संभावनाओं की विस्फोटक स्थिति को जन्म दिया है, इसलिए इसका प्रारंभिक तेवर आक्रामक है, अराजक भी। इसे संयमित, संतुलित किए जाने के साथ-साथ इसका नियमन भी जरूरी है। मौलिक अभिव्यक्ति के स्वत्वाधिकार की रक्षा के साथ मर्यादित भाषा के प्रयोग और शुद्ध पाठ की प्रस्तुति के प्रयत्न भी यहाँ निश्चित रूप से किए जाने चाहिए; जिसके लिए दुनिया के तमाम मीडिया-विशेषज्ञ चिंतित हैं। लेकिन फिलहाल अपनी मर्यादा का नियमन न्यू मीडियाके प्रयोक्ताओं को स्वयं ही करना होगा, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संतुलित और सकारात्मक प्रयोग न्यू मीडियाका सर्वाधिक उज्जवलतम पक्ष है।


सोमवार

'उद्भ्रांत की काव्य-प्रतिभा का विस्फ़ोट रवीन्द्रनाथ जैसा’- नामवर


यी दिल्ली। ‘‘कवि उद्भ्रांत की एक साथ तीन नयी काव्य-कृतियों का लोकार्पण अद्भुत ही नहीं ऐतिहासिक भी है। इतनी कविताओं का लिखना उनकी प्रतिभा का विस्फोट है रवीन्द्र्नाथ मे भी ऎसा ही विस्फॊट हुआ था, साथ ही इनमें रचनाकार की सर्जनात्मक ऊर्जा की भी दाद देनी होगी।’’ ये बातें मूर्द्धन्य आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने उद्भ्रांत की तीन काव्य-कृतियों ‘अस्ति’ (कविता संग्रह), ‘अभिनव पांडव’ (महाकाव्य) एवं ‘राधामाधव’ (प्रबंध काव्य) के लोकार्पण के अवसर पर शुक्रवार दिनांक 17 जून, 2011 को हिन्दी भवन, दिल्ली में आयोजित ‘समय, समाज, मिथक: उद्भ्रांत का कवि-कर्म’ विषयक संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कहीं। नामवर जी ने उद्भ्रांत के पूरे रचनात्मक जीवन पर प्रकाश ड़ालते हुए कहा कि उनकी ‘सूअर’ शीर्षक कविता नागार्जुन की मादा सूअर पर लिखी कविता के बाद उसी विषय पर ऐसी कविता लिखने के उनके साहस को प्रदर्शित करती है जिसके लिये वे बधाई पात्र हैं। उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा की दाद देनी होगी। हिन्दी भाषा में पांच सौ पृष्ठों के पहले वृहद्काय कविता संग्रह ‘अस्ति’ का लोकार्पण करते हुए उन्होंने कहा कि कवि अपने शब्दों के द्वारा इसी दुनिया में एक समानान्तर दुनिया रचता है, जो विधाता द्वारा रची दुनिया से अलग होकर भी संवेदना से भरपूर होती है। मिथकों को माध्यम बनाकर उन्होंने जो रचनाएं की हैं, वे भी उनकी समकालीन दृष्टि के साथ उनकी बहुमुखी उर्वर प्रतिभा को प्रदर्शित करती हैं। मुख्य वक्ता वरिष्ठ आलोचक डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ‘अभिनव पांडव’ (महाकाव्य) का लोर्कापण करते हुए कहा कि इसमें कवि ने महाभारत का एक तरह से पुनर्पाठ आधुनिक संदर्भ में बेहद गंभीरता के साथ किया है। युधिष्ठिर को केन्द्र में रखकर जिस तरह से उनको और उनके माध्यम से महाभारत के दूसरे महत्त्वपूर्ण चरित्रों को वे प्रश्नों के घेरे में लाये हैं, वह अद्भुत है और इससे युधिष्ठिर औरअन्य मिथकीय चरित्रों के दूसरे पहलुओं के बारे में जानने का भी हमें मौक़ा मिलता है। महाकवि प्रसाद की ‘कामायनी’ से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि वह महाकाव्य नहीं है, लेकिन महत् काव्य ज़रूर है। ‘अभिनव पांडव’ को कवि ने महाकाव्य कहा है और अपनी भूमिका ‘बीजाक्षर’ में इस सम्बंध में बहस की है और अपने तर्क दिये हैं, लेकिन मैं इसे विचार काव्य कहूँगा जो महत् काव्य भी है और मेरा विश्वास है कि आने वाले समय में हिन्दी के बौद्धिक समाज में यह व्यापक विचारोत्तेजना पैदा करेगा। उन्होंने कहा कि ‘राधामाधव’ काव्य बहुत ही मनोयोग से लिखा गया काव्य है, जिस पर बिना गहराई के साथ अध्ययन किए जल्दबाजी में टिप्पणी नहीं की जा सकती। इनकी रचनाएं समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। अपनी पचास वर्ष से अधिक समय की रचना-यात्रा में उनके द्वारा पचास-साठ से अधिक पुस्तकें लिखना सुखद आश्चर्य का विषय है। वरिष्ठ आलोचक डॉ. नित्यानंद तिवारी ने ‘राधामाधव’ का लोकार्पण करते और कवि की अनेक रचनाओं के उदाहरण देते हुए कहा कि उनके पास कहने को बहुत कुछ है और लिखने की शैली भी अलग है। मिथकों को लेकर उन्होंने कई रचनाएं की हैं जो अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें संदेह नहीं कि वे हिन्दी के सुप्रतिष्ठित कवि हैं। उनका रचनात्मक आवेग बहुत तीव्र है और उनके पास अक्षय भंडार है। पूतना के माध्यम से आदिवासी स्त्राी जीवन का चरित्रा-चित्राण अनोखा है। कवि ने अपने सम्पूर्ण काव्य-सृजन को समकालीन बनाने की हर संभव कोशिश की है जिसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। सत्यप्रकाश मिश्र, राममूर्ति त्रिपाठी और रमाकांत रथ जैसे अनेक भारतीय विद्वानों ने उनकी इस विशिष्टता को रेखांकित भी किया है। कवि लीलाधर मंडलोई ने कहा कि बिना राधा के आख्यान को रचे राधाभाव को रचना ‘राधामाधव’ का महत्त्वपूर्ण तत्व है। इसमें स्त्री विमर्श भी है जिससे कवि की अलग पहचान बनती है। इनके समूचे साहित्य में मूल पूंजी आख्यान है और आख्यान को साधना बहुत बड़ी बात है। आलोचक डॉ. संजीव कुमार ने कहा कि विवेच्य संग्रह ‘अस्ति’ में इतनी तरह की और इतने विषयों की कविताएं हैं जो पूरी दुनिया को समेटती हैं। उद्भ्रांत जी की कविताओं में पर्यावरण के साथ-साथ पशु-पक्षियों और संसार के समस्त प्राणियों की संवेदना को महसूस किया जा सकता है। संग्रह की अनेक कविताएं अद्भुत हैं। साहित्यकार धीरंजन मालवे ने कविता संग्रह ‘अस्ति’ पर केन्द्रित आलेख का पाठ करते हुए कहा कि कवि ने कविता की हर विधा को सम्पूर्ण बनाने में अपनी भूमिका निभाई है और उनकी कृतियों से यह साफतौर पर ज़ाहिर होता है कि उद्भ्रांत नारी-सशक्तीकरण के प्रबल पक्षधर हैं। इसके साथ ही उन्होंने दलित चेतना के साथ अनेक विषयों पर बेहतरीन कविताएं लिखीं हैं। संगोष्ठी का बीज-वक्तव्य देते हुए जनवादी लेखक संघ की दिल्ली इकाई के सचिव प्रखर आलोचक डॉ. बली सिंह ने कहा कि आज के दौर में इतने तरह के काव्यरूपों में काव्य रचना बेहद मुश्किल है, लेकिन उद्भ्रांत जी इसे संभव कर रहे हैं। उनकी कविताएं विचारों से परिपूर्ण हैं। यहाँ सांस्कृतिक मसले बहुत आये हैं और पहले की अपेक्षा उनकी कविताओं में स्मृतियों की भूमिका बढ़ी है। ‘राधामाधव’ स्मृतियों का विलक्षण काव्य है। ‘अभिनव पांडव’ में स्त्रियों के प्रति बराबरी के दर्जे के लिये कई सवाल उठाये गये हैं जो आज के दौर में अत्यंत प्रासंगिक हैं। उन्होंने इस उत्तर आधुनिक समय में आई उद्भ्रांत की मिथकाधारित और विचारपूर्ण समकालीन कविताओं को बहुत महत्त्वपूर्ण बताया। प्रारम्भ में, कवि उद्‍भ्रांत ने तीनों लोकार्पित कृतियों की चुनिंदा कविताओं और काव्यांशों का प्रभावशाली पाठ करने के पूर्व ‘अस्ति (कविता-संग्रह)’ जिसे उन्होंने ‘कविता और जीवन के प्रति आस्थावान’ अपने सुधी और परम विश्वसनीय पाठक-मित्र के निमित्त ‘समर्पित किया है- की प्रथम प्रति बड़ी संख्या में उपस्थित सुधी श्रोताओं में से एक वरिष्ठ कवि श्री शिवमंगल सिद्धांतकर को तथा ‘राधा-माधव’- जिसे उन्होंने पत्नि और तीनों बेटियों के नाम समर्पित किया है- की प्रथम प्रति श्रीमती उषा उद्‍भ्रांत को भेंट की। कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए दूरदर्शन महानिदेशालय के सहायक केन्द्र निदेशक श्री पी.एन. सिंह द्वारा कवि के सम्बंध में दी गई इन दो महत्त्वपूर्ण सूचनाओं ने सभागार में मंच पर उपस्थित विद्वानों और सुधी श्रोताओं को हर्षित कर दिया कि वर्ष 2008 में ‘पूर्वग्रह’ (त्रौमासिक) में प्रकाशित उनकी जिस महत्त्वूपर्ण लम्बी कविता ‘अनाद्यसूक्त’ के पुस्तकाकार संस्करण को लोकार्पित करते हुए नामवर जी ने उसे उस समय तक की उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति घोषित किया था-को वर्ष 2008 के ‘अखिल भारतीय भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार’ से सम्मानित करने की घोषणा हुई है। इसके अलावा उडीसा से पद्मश्री श्रीनिवास उद्गाता जी-जिन्होंने रमाकांत रथ के ‘सरस्वती सम्मान’ से अलंकृत काव्य ‘श्रीराधा’ का उड़िया से हिन्दी में तथा धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ का हिन्दी से उड़िया में काव्यानुवाद किया था-ने कवि को सूचित किया है कि वे आज लोकार्पित ‘राधामाधव’ का भी हिन्दी से उड़िया में काव्यानुवाद कर रहे हैं जो बहुत जल्द उड़िया पाठक-समुदाय के समक्ष आयेगा। धन्यवाद-ज्ञापन हिन्दी भवन के प्रबंधक श्री सपन भट्टाचार्य ने किया।
प्रस्तुतकर्ता
तेजभान
ए-131, जहांगीरपुरी, नई दिल्ली-110033
मोबाईल: 9968423949

बुधवार

उर्दू में गुलज़ार का नया काव्य-संग्रह पंद्रह पांच पचहत्तर


मुझे अफ़सोस है सोनां
कि मेरी नज़्म से होकर गुज़रते वक्त बारिश में
परेशानी हुई तुमको
बड़े बेवक्त आते हैं यहां सावन
मेरी नज़्मों की गलियां यों भी अक्सर भीगी रहती है
कई गड्ढों में पानी जमा रहता है
अगर पांव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है

मुझे अफ़सोस है लेकिन-
परेशानी हुई तुमको कि मेरी नज़्म में कुछ रोशनी कम है
गुज़रते वक्त दहलीजों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाख़ून कितने बार टूटे हैं-
हुई मुद्दत कि चैराहे पे अब बिजली का खंभा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुमको-
मुझे अफ़सोस है सचमुच!
 
प्रकाशकः उर्दू मरकज़ अजी़माबाद
247 एम आई जी लोहियानगर
पटना-800 020. मोबाइल- 09431602575.

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