पहली महिला ब्लॉगर कौन हैं ?
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नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन में हिन्दी पत्रकारिता
का कोर्स कर रहे *विकास ज़ुत्शी जी *ने मेल भेजी और *चिट्ठाकारी में महिलाओं
की भू...
शनिवार
मंगलवार
कमला प्रसाद ने कहा था - साहित्य कला का मूल प्रायोजन उदात्त और सुसंस्कृत समाज की रचना है।
कमला प्रसाद के साथ अरविन्द श्रीवास्तव |
बाजार में क्या नहीं है? बाजार में सब है, धन है, कीर्ति, धर्म-कर्म, अर्थ- काम, मोक्ष सब है। ऐसे में साहित्य क्या कर सकता है। निश्चय ही संवेदना की रक्षा विखण्डन में से संश्लेषणात्मक विचारों और भावों के नये रचनात्मक रूपाकारों को मानवीय गरिमा प्रदान करना उसका लक्ष्य रहा है। इसी उद्देश की प्रतिबद्धता उसे लाभ-लोभ से बाहर रखने का दबाव देती थी। रचनाकार को विपक्ष में होने को मजबूर करती थी। मार्क्स के शब्दों में कहें ‘पूंजीवाद युग में साहित्य को साहित्य मात्र बने रहने और कला को कला बने रहने के लिए पूंजीवाद का विरोध करना पड़ता है।’ मार्क्स ने सौन्दर्यशास्त्र पर कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी पर व्यक्ति, समाज, जीवन, सृष्टि और प्रकृति के सार्वभौमिक स्वरूप पर विचार करते हुए इस अपरिहार्य मानवीय कर्म की व्याख्या की है। उन्होंने लेखकों को आगाह किया है कि वे रचनाकर्म को लोभ का साधन न बनाएं। यह काम जिन्दा रहने की जरूरतों के लिए नहीं है। साहित्य कला में मूलतः रचनाकार का इंद्रियबोध-भावबोध व्यक्त होता है जिसमें मनुष्य स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। इन्द्रियों को निर्बन्ध बना सके, विचारों का मानवीयकरण-समाजीकरण हो सके और मनुष्यता के दायरे में कृत्रिम रूप से निर्मित विभेदों की समाप्ति हो सके। साहित्य कला का मूल प्रायोजन उदात्त और सुसंस्कृत समाज की रचना है। मनुष्य को अपनी मनुष्यता इन्हीं रूपाकारों में अर्जित कर विकसित करनी पड़ती है। - बिहार प्रलेस संवाद
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प्रलेस
शुक्रवार
राजेन्द्र यादव की दिक्कत यह है कि वे गंभीर बातों के कारण चर्चा में रहना नहीं चाहते ... ‘एक और अन्तरीप’ में हेतु भारद्वाज ।
राजस्थान की साहित्यिक परंपरा में ‘एक और अन्तरीप’ (संपादक- डा. अजय अनुरागी एवं डा. रजनीश संपर्क- 1.न्यू कालोनी, झोटवाड़ा, पंखा, जयपुर- 302012. राज., मोबाइल- 09468791896) का लंबे अंतराल के बाद साहित्य जगत में सुखद व साथर्क हस्तक्षेप हुआ। पत्रिका के प्रधान संपादक प्रेमकृष्ण शर्मा का मानना है कि लधु पत्रिका निकालना या साहित्य रचना करना कोई विलासिता नहीं है, बल्कि अपने रक्त से उस हथियार को निर्माण करना है जो मानव-मुक्ति की लड़ाई में कारगर होकर मानव को शोषण चक्र से मुक्त करेगा। ‘एक और अन्तरीप’ उन्हीं लोगों के साथ है जो मानव मुक्ति के संग्राम में सक्रिय रहे हैं...। अंक में ‘जटिल समय के सहज कविः गोविन्द माथुर’ शीर्षक से संपादक अजय अनुरागी ने कवि गोविन्द माथुर के कविता कर्म का सहृदयता से मूल्यांकण किया है, उनका मानना है कि गोविन्द माथुर की कविताएँ दुरूहताओं और भयावहताओं से परे है। इन्हें पढ़ने के लिए अतिरिक्त तैयारी या विशेष मानसिक योग्यता की जरूरत नही है। ये कविताएँ हलचल रहित शालीन शैली में लिखी गई है। गोविन्द माथुर की कविताओं की गंभीरता व समय की विद्रुपता पर व्यंग्य को मुक्तस़र में देखें-
कौन पूछता है कवियों को /अच्छे पद पर हों तो बात और है।
एक और बानगी
‘हम उन्हें कवि नहीं मानते / क्योंकि वे हमारे गुट में नहीं है।’
गोविन्द माथुर युवा कवियों के आचरण को भी गहराई में जाकर झकझोरते हैं -
युवा कवि होने के लिए/लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए/सुविधा भोगते हुए भी/हमेशा असन्तुष्ट और नाराज दिखते रहना चाहिए/हर समय होठों पर/टिकाए रखना चाहिए किंग साइज सिगरेट/हर शाम शराब पीते हुए/अपने वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए।
गोविन्द माथुर की कविताएँ अपने कथ्य व शिल्प की जहजता के साथ पाठकों को उद्वेलित करती हैं। अंक में वरिष्ठ साहित्यकार हेतु भारद्वज से डा. नरेन्द्र इष्टवाल से बातचीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इधर साहित्य में चले विभिन्न विमर्शों यथा- स्त्री, दलित जैसे मुद्दों पर हेतु भारद्वाज ने खुल कर विचार व्यक्त किए हैं। राजेन्द्र यादव के स्टैण्ड को व्यख्यायित करते हुए वे कहते हैं - ‘राजेन्द्र यादव की दिक्कत यह है कि वे गंभीर बातों के कारण चर्चा में रहना नहीं चाहते बल्कि हल्की बातों को लेकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते हैं। उन्होंने प्रयास यही किया कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व के लिए इस्तमाल करें और उन्होंने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए। उन्होंने स्त्री और दलित को पूरे समाज से अलग करके देखा। उसका नतीजा यह हुआ कि दलित विमर्श उनकी साहित्यिक राजनीति का हिस्सा बन गया और स्त्री विमर्श उनका व्यक्तिगत मामला।’ अंक में कवि शताब्दी के अंतर्गत फैज अहमद फैज की जन्मशती वर्ष पर रामनिहाल गुंजन का आलेख - जब तख्त गिराये जाएँगे,जब ताज उछाले जायेंगे’ रोचकता से पूर्ण है। चार कहानियाँ सहित कविता की एक मुकम्मल दुनिया अंक की सार्थकाता पर मुहर लगाती है। विमर्श में डा. रंजना जायसवाल का आलेख ‘सैक्स का पाखण्ड’ कई मिथकों को खारिज करती है। रंजना का मानना है कि -सेक्स शिक्षा इसलिए जरूरी है कि सेक्स के मनोविज्ञानिक पहलू को भी समझा जा सके वरना सेक्स का सेंसेक्स कभी भी इतना गिर सकता है कि स्त्री-पुरुष का स्वभाविक प्रेम खत्म हो जाएगा। ‘एक और अन्तरीप’ का सिलसिला आगे भी चलता रहे ऐसी सुखद कामना की जाय।
कौन पूछता है कवियों को /अच्छे पद पर हों तो बात और है।
एक और बानगी
‘हम उन्हें कवि नहीं मानते / क्योंकि वे हमारे गुट में नहीं है।’
गोविन्द माथुर युवा कवियों के आचरण को भी गहराई में जाकर झकझोरते हैं -
युवा कवि होने के लिए/लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए/सुविधा भोगते हुए भी/हमेशा असन्तुष्ट और नाराज दिखते रहना चाहिए/हर समय होठों पर/टिकाए रखना चाहिए किंग साइज सिगरेट/हर शाम शराब पीते हुए/अपने वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए।
गोविन्द माथुर की कविताएँ अपने कथ्य व शिल्प की जहजता के साथ पाठकों को उद्वेलित करती हैं। अंक में वरिष्ठ साहित्यकार हेतु भारद्वज से डा. नरेन्द्र इष्टवाल से बातचीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इधर साहित्य में चले विभिन्न विमर्शों यथा- स्त्री, दलित जैसे मुद्दों पर हेतु भारद्वाज ने खुल कर विचार व्यक्त किए हैं। राजेन्द्र यादव के स्टैण्ड को व्यख्यायित करते हुए वे कहते हैं - ‘राजेन्द्र यादव की दिक्कत यह है कि वे गंभीर बातों के कारण चर्चा में रहना नहीं चाहते बल्कि हल्की बातों को लेकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते हैं। उन्होंने प्रयास यही किया कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व के लिए इस्तमाल करें और उन्होंने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए। उन्होंने स्त्री और दलित को पूरे समाज से अलग करके देखा। उसका नतीजा यह हुआ कि दलित विमर्श उनकी साहित्यिक राजनीति का हिस्सा बन गया और स्त्री विमर्श उनका व्यक्तिगत मामला।’ अंक में कवि शताब्दी के अंतर्गत फैज अहमद फैज की जन्मशती वर्ष पर रामनिहाल गुंजन का आलेख - जब तख्त गिराये जाएँगे,जब ताज उछाले जायेंगे’ रोचकता से पूर्ण है। चार कहानियाँ सहित कविता की एक मुकम्मल दुनिया अंक की सार्थकाता पर मुहर लगाती है। विमर्श में डा. रंजना जायसवाल का आलेख ‘सैक्स का पाखण्ड’ कई मिथकों को खारिज करती है। रंजना का मानना है कि -सेक्स शिक्षा इसलिए जरूरी है कि सेक्स के मनोविज्ञानिक पहलू को भी समझा जा सके वरना सेक्स का सेंसेक्स कभी भी इतना गिर सकता है कि स्त्री-पुरुष का स्वभाविक प्रेम खत्म हो जाएगा। ‘एक और अन्तरीप’ का सिलसिला आगे भी चलता रहे ऐसी सुखद कामना की जाय।
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समीक्षा
सोमवार
गीतांजलि के हिन्दी अनुवाद : रेवती रमण
विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर अनेक आयोजन हुए हैं। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में उनके जीवन और साहित्य से संबद्ध लेख आदि प्रकाशित हुए हैं। उनकी रचनाओं के अनुवाद तो उन्नीसवीं सदी क अंतिम दशक में ही प्रकाशित होने लगे थे। डॉ. देवेन्द्र कुमार देवेश की पुस्तक ‘गीतांजलि के हिन्दी अनुवाद’ को इसी परिप्रेक्ष्य में एक हिन्दी कवि-लेखक का अनोखा उपहार समझना चाहिए। इससे बेहतर विश्वकवि को दी गई कोई श्रद्धांजलि नहीं हो सकती। देवेश की यह किताब इसलिए भी खास तौर पर पठनीय है कि इससे अनेक भ्रमों को निवारण होता है। कम लोग जानते हैं कि पुरस्कृत ‘गीतांजलि’ की अंग्रेजी रचनाऍं गद्यात्मक हैं, पद्यात्मक नहीं। उनका प्रभाव भले काव्यात्मक हो। एक बड़ा भ्रम यह है कि बांग्ला ‘गीतांजलि’ के अनुवादक डब्ल्यू. बी. येट्स हैं। इस भ्रम को प्रचारित करने में कुछ पश्चिमी लेखकों की भी विवादास्पद भूमिका है। इस विडंबना से हिन्दी के लेखक भी नहीं बचे। मसलन गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी प्रतिबंधित कृति ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ में लिखा है, ‘’आयरलैण्ड के विश्वविख्यात कवि डब्ल्यू. बी; येट्स ने उनकी (रवीन्द्रनाथ की) गीतांजलि का अंग्रेजी में अनुवाद किया।‘’ यही बात अमृतलाल नागर और त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने भी शब्द-भेद से कही। देवेश ने गहरी छानबीन के उपरांत स्पष्ट कर दिया है कि अंग्रेजी गीतांजलि विश्वकवि की स्व-रचित सामग्री है। उन्होंने शब्द गिनकर दिखाया है। मुश्किल से तीस-पैंतीस ऐसे शब्द हैं, जो येट्स के संशोधन के साक्ष्य देते हैं। येट्स के साथ ऐण्ड्रूज का नाम भी इस परिप्रेक्ष्य में लिया जाता है। लेकिन देवेश ने इस भ्रांति को भी निर्मूल सिद्ध किया है। प्रस्तुत शोधालोचना का मुख्य प्रतिपाद्य ‘गीतांजलि’ के हिन्दी अनुवादों से संबद्ध है। इसके लिए दो पूरे अध्याय हैं। पद्यात्मक और गद्यात्मक अनुवादों के विवेचन-विश्लेषण के लिए अलग-अलग अध्याय। भिन्न अनुवादकों की रचनाओं को आमने-सामने रखकर सतर्क और सटीक विवेचन प्रभावित करता है। ‘गीतांजलि’ का हिन्दी में पहले देवनागरी लिप्यंतरण हुआ, अगले वर्ष 1915 में काशीनाथ जी ने उसका गद्यानुवाद किया। हिन्दी से पहले डेनिश, स्वीडिश और रूसी में। देवेश ने अपने अध्ययन के लिए अनुवादों की चार कोटियॉं बनाई हैं : 1) देवनागरी लिप्यंतर, 2) गद्यानुवाद, 3) पद्यानुवाद, और 4) व्याख्यानुवाद। हिन्दी में पहला छंदोबद्ध पद्यानुवाद द्विवेदीयुग के गिरधर शर्मा ‘नवरत्न’ ने किया। इस प्रबंध-कार्य में देवेश ने कितना श्रम किया है, यह समझने के लिए इसके दो बड़े अध्याय ही पर्याप्त है—गद्यानुवाद और पद्यानुवाद के। स्रोत और लक्ष्य भाषाओं की प्रकृति को समझते हुए, हर पंक्ति का विशद विवेचन। बल्कि इसका परिशिष्ट भी अत्यंत उपयोगी है। ‘गीतांजलि’ के अनुवादकों का संक्षिप्त परिचय देकर उन्होंने अनुवाद-कर्म की गरिमा बढ़ाई है। उपलब्ध अनुवादों की मीमांसा में उनकी उपलब्धियों और सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख हुआ है तो अगले अनुवादकों की चुनौतियॉं भी उजागर हुई हैं।
समीक्षित पुस्तक – गीतांजलि के हिन्दी अनुवाद, लेखक – देवेन्द्र कुमार देवेश प्रथम संस्करण – 2011, मूल्य – 295 रुपये, पृष्ठ – 220 (सजिल्द) प्रकाशक – विजया बुक्स, 1/10753, सुभाष पार्क, गली नं. 8, नवीन शाहदरा, दिल्ली, मोबाइल : 9910189445 (राजीव शर्मा)
(प्रख्यात आलोचक डॉ. रेवती रमण, मो. 09006885907, की विस्तृत समीक्षा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, मई-जून 2011 के अंक में प्रकाशित हुई है। यहॉं उसी का अंश प्रस्तुत किया गया है।)
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समीक्षा
गुरुवार
मेहनतकशों के पक्ष में लिखी जा रही हैं कविताएं - शंकर, संपादक-’परिकथा’
काव्य-यात्रा : 04 सितंबर , 2011
जमशेदपुर वीमेंस कॉलेज के सभागार में प्रगतिशील लेखक संघ और ‘परिकथा ‘ के तत्वावधान में काव्य –विमर्श और काव्य–पाठ का एक विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित किया गया | नगर के साहित्य –प्रेमियों का कहना है कि पिछले दो दशकों के अंतराल में इस लौह – नगरी में इस स्तर का अनूठा कार्यक्रम सम्पन्न नहीं हुआ था | बड़ी बात यह है कि बाजारवाद के इस आंधी दौड़ मे व्यस्त नगर के शिरकत करने वाले लोगों में लगभग 150 आगंतुक साहित्य से सरोकार रखने वाले थे और सब के सब कार्यक्रम के अंत तक सभागार में मन से बने रहे | उनके चहरे पर खुशी की कौंध थी और उन्होंने कार्यक्रम के आयोजकों के प्रति इसके लिए तहेदिल से आभारी व्यक्त किया | यही नहीं , कई टी.वी. चैनलों और प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों के संपादक और संवाददाता भी अंत तक वहाँ जमे रहे | उक्त कार्यक्रम में प्रगतिशील लेखक संघ के उपाध्यक्ष और प्रतिष्ठित समालोचक श्री डा. खगेन्द्र ठाकुर (पटना ) और वरिष्ठ लोकधर्मी कवि शंभु बादल के अतिरिक्त चर्चित साहित्यकार रणेन्द्र , युवा कवि शहंशाह आलम (पटना) , कहानीकार अभय (सासाराम ), पंकज मित्र ( रांची), अशोक सिंह (दुमका ) , अरविंद श्रीवास्तव (मधेपुरा ,बिहार ) और सुशील कुमार ( दुमका) विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित हुए थे | नगर के गणमान्य साहित्यकार और “परिकथा” के संपादक शंकर , कथाकार जयनंदन और कमल , शायर अहमद बद्र और मंजर कलींम, कवयित्री ज्योत्सना अस्थाना के साथ संध्या सिन्हा , गीता नूर, उदय प्रताप हयात, मुकेश रंजन और शशि कुमार भी मौजूद थे | पूरा कार्यक्रम दो सत्रों में संयोजित था | प्रथम सत्र 3.30 बजे अपराहन से आरंभ हुआ जो कवि सुशील कुमार की कविताओं का संग्रह ‘तुम्हारे शब्दों से अलग ‘ के काव्य-विमर्श पर केन्द्रित था और दूसरा सत्र (जो 6.00 बजे अप. से प्रारम्भ हुआ ) अतिथि-साहित्यकार और नगर के चुनिंदों कवियों के काव्य-संध्या का |
कार्यक्रम का शुभारंभ चर्चित युवा कवि और अनुवादक ( चर्चित काव्य संग्रह ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ –निर्मला पुतुल ) के काव्य-विमर्श से हुआ जिन्होंने कहा कि सुशील कुमार का काव्य –संग्रह ‘तुम्हारे शब्दों से अलग ‘ बाजार के बढ़ते आतंक और शब्दों की बाजीगरी करते शब्द तशकरों के खिलाफ एक वैचारिक जंग का एलान है | इस संग्रह की कविताओं में न तो किसी बौद्धिक अभेद्यता का आतंक है और न ही किसी कौशल को चमत्कृत कर देने का उपक्रम और न ही अनुभवों को सरलीकरण करने वाली भावुकता | दूसरे वक्ता कवि अरविन्द श्रीवास्तव ने बताया कि सांस्कृतिक बंजरपन के विरुद्ध उंम्मीद की कुछ कोमल –मुलायम पंक्तियों के साथ सुशील कुमार की प्रस्तुत संग्रह की कवितायें समय की आहट को बखूबी पहचानती है | युवा कवि शहंशाह आलम ने रचनाओं को आम आदमी के काफी निकट बताया जिसमें सामाजिक चेतना का स्वर मुखर है जबकि वरिष्ठ लोकधर्मी कवि शंभु बादल ने कविता-पुस्तक को जन प्रगतिशील विचार का प्रतिबद्ध वैचारिक दस्तावेज़ कहा | शंकर ने सूक्ष्मता से संग्रह की कविताओं की चर्चा कराते हुए उसे जन-भावनाओं से ओत–प्रोत और जीवन में आशा जगाने वाली बताया उन्होंने मेहनतकशों के पक्ष में लिखी जा रही कविताओं पर भी प्रकाश डाला | कथाकार जयनंदन ने इसे आदिवासी जन –जीवन की गाथा कहकर इसकी सराहना की और अहमद बद्र ने पुस्तक के आमुख पर विस्तार से प्रकाश डाला | प्रथम सत्र के अध्यक्षीय संभाषण में सुशील कुमार की कविताओं की रचना –प्रक्रिया पर बारीकी से चर्चा कर इसे संप्रति लिखी जा रही कविताओं की कड़ी में राजनीतीक चेतना का महत्वपूर्ण काव्य –संग्रह कहा और उसके संभावनाओं पर विमर्श करते हुए ऐसे ही लिखते रहने की कामना की | दूसरे सत्र में सभी मंचासीन अतिथियों और नगर के प्रमुख कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ कर श्रोताओं को सम्मोहित कर लिया | शहर के जाने –माने व्यक्तित्व मार्क्सवादी साहित्यकार शशि कुमार धन्यवाद–ज्ञापन से कार्यक्रम का समापन हुआ |
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