देव प्रकाश चौधरी |
बिहार और झारखंड का सांस्कृतिक चेहरा इतना काला और डरावना शायद पहले कभी नहीं रहा। हाशिये से भी बाहर हो गई है संस्कृति....लेकिन फिर भी उम्मीद बची हुई है। उम्मीद है तो ही जीवन है और जिस दिन यो उम्मीद ध्वस्त हो जाएगी, फिर न तो किसी के कूकने से भी नहीं लौटेगा बसंत और न ही किसी के बोलने से नहीं पाहुन।
व्यवस्थित और शिक्षित माने जाने वाले उस गांव में आगंतुकों की कतार थमने का नाम ही नहीं ले रही। मानो गोड्डा जिले के मोतिया गांव की आबादी अचानक बढ़ गई हो। सिनेमा का गाना नहीं, झूमर और लोकगीत! बरसों बाद विशेषर शर्मा आया है। बेजोड़ गाता है......... बेटा भेल लोकी लेल बेटी भेल फेकी देल! क्या गला पाया है? गंजेड़ी है तो क्या हुआ? गुणी आदमी है। ढोलकिया भी खूब ताल देता है........ सब तरफ यही चर्चा। पड़ोस के गांव की औरतें भी दल बांध कर आ रही हैं। पढ़ी-लिखी औरतें भी हैं और ऐसे लोग भी, जो टीवी के आदी हो चुके हैं।लोकधुन की बयार में रात भर सैकड़ों लोग बहते रहे और कब सुबह हो गई, पता नहीं चला। बात बहुत पुरानी नहीं है और तब के बिहार की है,जब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था।
आज किसी को नहीं पता, रात भर लोगों को रिझाने वाले लोकगायक विशेषर शर्मा कहां हैं? किस हाल में हैं? तेजी से भाग रही जिंदगी में शायद किसी को इस जानकारी की जरूरत भी नहीं। क्योंकि बदलते वक्त ने बिहार की सांस्कृतिक अस्मिता को उस फुटपाथ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां लोक संस्कृति के लिए पैर रखने की भी जगह नहीं। देखते-देखते हाशिये से भी बाहर हो गए लोक कलाकार, बेरंग हो गई लोककला।