समकालीन कश्मीरी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गुलाम नबी ‘आतिश’ की कविता किसी भी राजनीतिक, सामाजिक उलझनों और विवादों से अलग दिखती है। इनकी कविताओं में आक्रोश और संघर्ष का एक सादगीपूर्ण इज़हार है साथ ही इनकी विशिष्ट अभिव्यक्ति पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती है। प्रस्तुत है इनकी ‘वसंत’ शीषर्क कविता (अनुवाद: क्षमा कौल) मित्रों के लिए ‘जनशब्द’ पर..
वसंत
प्रेम-हीन बसंत
आज शीत
गंघहीन ठंडक
बहुत
कहाँ आएँगे भला प्रवासी पक्षी
वसंत आया नहीं
अब के इधर
जलसे-जुलूस प्रौपेगंडा
ग्रीष्म के सिंह की भी
साँस उसाँस हो रही है
ऋतुओं का दूल्हा खो गया है
चुनावों की गहमागहमी में।
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(29-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
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