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मंगलवार

कवि सोमदेव को प्रबोध साहित्य सम्मान स्वरूप एक लाख की राशि और स्मारक।



मैथिली के प्रतिष्ठित कवि 76 वर्षीय सोमदेव को वर्ष 2011 के लिए प्रबोध सहित्य सम्मान दिए जाने की धोषणा स्वास्ति फाउन्डेशन की ओर से की गयी है। ज्ञातव्य है कि आचार्य सोमदेव इसके पूर्व साहित्य अकादमी द्वारा भी सम्मानित हो चुके हैं। चानोदाइ, होटल अनारकली (उपन्यास), चैरेवेति, काल ध्वनि, लाल एशिया, मेघदूत, सहस्त्रमुखी चैक पर, सोम सतसई जैसे काव्यग्रंथों के रचयिता सोमदेव साठ वर्षों से अनवरत साहित्य सेवा में रत हैं।
1955 में मिथिला विश्वविधालय, दरभंगा से हिन्दी विभाग के उपाचार्य पद से निवृत होकर साहित्य साधना में निमग्न हैं। प्रबोध साहित्य सम्मान के रूप में उन्हें 19 फरवरी को पटना स्थित कालीदास रंगशाला में 1 लाख नगद और प्रतीक चिन्ह दिया जायेगा।

रविवार

लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका ‘कृति ओर’ का यह अंक-


लोक धर्मिता की हृदय-स्पर्शी कविताओं और लोक दृष्टि के तत्वों से सम्पूरित आलेखों से संकलित ‘कृति ओर’ का अक्टूबर-दिसम्बर ’10 का 58 वाँ अंक कई अर्थों में विशेष उल्लेखनीय हैं। लोक, जनपद और काव्यभाषा पर संदर्भित संपादक विजेन्द्र का आलेख ‘कृति ओर’ से जुड़े कवि, लेखक तथा पठकों को यह सोचने को विवश कर देता है कि हिन्दी और संस्कृत की कविता तथा उसका काव्यशास्त्र या आलोचना की आत्मा भारतीय आत्मा से भिन्न नहीं है- फिर भी जनजातियांे की जीवनशैली और संस्कृति इस कथित भारतीयता से मेल नहीं खाती। इस अभिप्राय का मंथन सदियों से चला आ रहा है। संपादक का विचार इस संबन्ध में वही है- जो कबीर का था- 
गंग तीर मोरी खेती बारी
जमुन तीर खरियाना
सातों बिरही मेरे निपजै
पंचू मोर किसाना।
सत्येन्द्र पाण्डेय का आलेख ‘समकालीन कविता में लोक दृष्टि’ तथा रामनिहाल गुंजन की ‘केशव तिवारी की काव्य चेतना’ में जहाँ कविता में लोक तत्व की मुखरता है वही सामाजिक कुरीतियाँ एवं राजनैतिक पाखण्ड के प्रति विद्रोह के शब्द गरजते हैं। 
हसी तरह शहंशाह आलम की कविता ‘धार्मिक विचारों को लेकर’ उसी धार्मिक ढोंग को रेखांकित करती है - जो अभी सम्पूर्ण विश्व की ज्वलन्त समस्या है। अन्य कविताएँ भी पठनीय है। संपर्क- ‘कृति ओर’ संपादकः रमाकांत शर्मा, ‘संकेत’ ब्रह्मपुरी-प्रतापमंडल, जोधपुर-342 001.(राजस्थान) मोबा.- 09414410367.

शुक्रवार

दिवंगत शिवराम की सृजनशीलता को समर्पित ‘प्रतिश्रुति’ का यह अंक


ऐसा सोचा कीजिए, जब मन होय उदास
एक सुंदर-सा स्वप्न है,अब भी अपने पास
                                                     
जोधपुर के मरुस्थल से भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित ‘प्रतिश्रुति’ (त्रैमासिक) का अक्टूबर-दिसम्बर ’10 अंक विचारोत्तेजक आलेख एवं मर्मस्पर्शी कविताओं के कारण हिन्दी पत्रिकाओं की शीर्ष पँक्ति में स्थान पाने को सक्षम है। संपादक डा. रमाकांत शर्मा ने अपने संपादकीय में आज की मुखर और वाचाल कविता ही नहीं, जिन फूहर कविताओं की ओर अंगुली उठाई है- वस्तुतः वह सपाटबयानी है और ऐसी कविताओं ने हिन्दी साहित्य का घोर अनिष्ट किया है। यही नहीं ‘उद्वोधन’ और ‘उपदेश’ भी कविता का क्षेत्र नहीं है। संपादक के अनुसार जीवन और जगत के मार्मिक चित्र मनुष्य को क्रियाशील बनाती है कविता। कविता अनुभव का हिस्सा बनकर संवेदनात्मक और इन्द्रियबोधात्म रूप में प्रस्तुत होती है तब वह प्रभावी, विश्वसनीय और आत्मीय हो जाती है। यह मार्गदर्शन भावी काव्यकारों के लिए सर्वथोचित है।
इस अंक के आलेख ‘पाठकों की बदलती रूचि और सृजन का संकट’ मे लेखक प्रेमपाल शर्मा अपने लंबे शैक्षणिक प्रशासनिक अनुभवों के आधार पर बेखौफ कह सकते हैं कि अनेकानेक वैज्ञानिक उपकरणों के कारण अब सृजन भी ‘हईटेक’ हो चुके हैं। फिर भी सृजन में संकट है- किन्तु सर्जक का संकट नहीं। निर्माण और ध्वंस का क्रम चलता रहेगा, लाख संकट में भी सृजन होते रहेंगे। 
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और माक्र्सवादी विचारक शिवराम जी पर महेन्द्र नेह का स्मृति शेष आलेख ‘नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों की मशाल’ उनके संघर्षशील और क्रांतिकारी विचारों को सलाम करता है। अंक से सुधीर विद्यार्थी की एक छोटी कविता ‘बीज’ 
-यदि मैं कठफोड़वा होता /तो दुनिया भर के /काठ हो चुके लोगों के / सिरों को फोड़ कर / भर देता जीवन के बीज  

डा. रमाकांत शर्मा 
संपादकः प्रतिश्रुति
‘संकेत’ ब्रह्मपुरी-प्रतापमंडल,
जोधपुर-342 001.(राजस्थान) मोबा.- 09414410367.

गुरुवार

हिन्दी में उदय प्रकाश सहित विभिन्न भाषाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारों की सूची


वर्ष 2010 में 20 दिसंबर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार तीन कहानीकारों, चार उपन्यासकारों 8 कवियों और सात समालोचकों को यह पुरस्कार प्रदान किया गया।

उदय प्रकाश (हिंदी) कहानी (मोहनदास)
मनोज (डोगरी) कहानी
नांजिल नाडन (तमिल) कहानी
अरविन्द उजीर (बोडो) कविता
अरूण साखरदांडे (कोंकणी) कविता
गोपी नारायण प्रधान (नेपाली) कविता
वनीता (पंजाबी) कविता
मंगत बादल (राजस्थानी) कविता
मिथिला प्रसाद त्रिपाठी (संस्कृत) कविता
लक्ष्मण दुबे (सिन्धी) कविता
शीन काफ निजाम (उर्दू) कविता
बानी बसु (बांग्ला) उपन्यास
एस्थर डेविड (अंग्रेजी) उपन्यास
धीरेन्द्र महेता (गुजराती) उपन्यास
एम. बोरकन्या (मणिपुरी)
केशदा महन्त (असमिया) समालोचना
बशर बशीर (कश्मीरी) समालोचना
रहमत तरिकरे (कन्नड़) समालोचना
अशोक रा. केलकर (मराठी) समालोचना

उदय प्रकाश को प्राप्त सम्मान -भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार,
ओम प्रकाश सम्मान,
श्रीकांत वर्मा पुरस्कार,
मुक्तिबोध सम्मान,
साहित्यकार सम्मान
द्विजदेव सम्मान
वनमाली सम्मान
पहल सम्मान
SAARC Writers Award
PEN Grant for the translation of The Girl with the Golden Parasol, Trans. Jason Grunebaum
कृष्णबलदेव वैद सम्मान
महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार, 'तिरिछ अणि इतर कथा' अनु. जयप्रकाश सावंत
2010 का साहित्य अकादमी पुरस्कार, ('मोहन दास' के लिये)

रविवार

किस्सा दुख नामक बेटी- मंगलेश डबराल संदर्भः सारा शगुफ्ता! उर्दू की पहली ‘एंग्री यंग पोएटस’


  सारा हमारे वक़्त की एक शायरा और एक इंसान का इक़बालिया बयान है, जिसे शाहिद अनवर ने एक लंबे एकालाप की तरह दर्ज किया है। लेकिन यह भीषण, परेशानकुन और ज़मीर को झकझोर देने वाला क़बूलनामा दरअसल एक बड़ा अभियोग-पत्रा है, जिसमें एक मासूम औरत और एक बेमिसाल शायरा अपनी त्रासद मृत्यु के लिए पुरुष जाति को गुनहगार ठहराती है। सारा के पति और सरपरस्त मर्द उसे हर बार सिर्फ इसलिए सज़ा देते रहे कि वह एक औरत थी और इसलिए भी कि वह शायरी करती थी। प्रेम की एक बेचैन तलाश में सारा ने चार विवाह किए और हर बार उसे अपमान और उत्पीड़न और क्रूरता का शिकार होना पड़ा। उसके पतियों में कुछ अच्छे-ख़ासे शायर भी थे, लेकिन वे भी मर्द ही साबित हुए और उन्हें भी सारा का शायरी करना गवारा नहीं हुआ। इसलिए नहीं कि वे शायरी के विरोध्ी थे, बल्कि इसलिए कि वे एक शायरा को अपनी बीवी बेशक बनाना चाहते थे, उस बीवी को आज़ाद रह कर शायरी करते हुए नहीं देख सकते थे। ‘मेरे क़बीले की कोख से / जब सिर्फ चीख पैदा हुई / तो मैंने बच्चे को गोद से फेंक दिया / और चीख़ को गोद ले लिया’ कहने वाली सारा आखि़रकार मौत को गोद ले लेती है, लेकिन यह मामूली मौत नहीं है, बल्कि यह किसी ज़मीर, किसी पाकीज़गी, किसी कायनात, किसी ख़ुदाई के और उसके परे भी कोई है तो उसके सामने और उसके भीतर गूंजते हुए अभियोगों और लानतों का एक दस्तावेज़ है। तमाम मर्दों और उनकी सामंती-बेरहम-ज़ालिम सत्ता के ख़िलाप़फ तमाम आज़ाद आत्माओं वाली औरतों की तरफ से एक अभियोग-पत्र !
इस एकल नाटक में सारा एक जगह अपने शौहर को ‘यज़ीद’ कहकर बुलाती है तो एक और जगह कहती हैः ‘तुम्हें जब भी कोई दुख दे / तो उस दुख का नाम ‘बेटी’ रखना।’ सारा के चार विवाह असल में चार मौतें, चार खुदकुशियां हैं और पांचवीं बार जब वह सचमुच ज़िंदगी की तरप़फ जा रही होती है, जब उसे अपनी मासूमियत और अपने प्रेम का कोई प्रतिबिंब और प्रतिरूप किसी सईद के भीतर नज़र आने लगता है तो वह ख़ुद अपना ख़ात्मा कर लेती है।...
क्या यह ‘दुख’ नामक बेटी की नियति है जिसका ज़िक्र सारा ने अपनी शायरी में किया है या सारा इस दुनिया में, जहां तमाम पुरुष उसे एक आसान शिकार की तरह देखते हैं, उसे हासिल करना चाहते हैं, लेकिन उसके भीतर किसी दुख, किसी विकलता, किसी स्वप्न को नहीं पहचान सकते, एक ऐसी दुनिया जिसमें प्रेम को पहचानने की संवेदना और मासूमियत नहीं बची है, और पति या प्रेमियों के द्वारा किए जा रहे बलात्कारों को ही प्रेम माना जाता है, अपने ख़ात्मे से कुछ सवाल छोड़े जा रही है, जो उसकी क़ब्र से भी उठते हुए आएंगे।

गुरुवार

बीकानेरी समाज, संस्कृति और परिवार के बड़े कैनवस का नाम है ‘इस शहर के लोग’ संदर्भ मानिक बच्छावत की नई कृति



पिछले वर्ष 2009 मे ‘पेड़ों का समय’ और अभी-अभी ‘इस शहर के लोग’ ने कविता जगत में मानिक दा की मिल्कियत को पुख्ता किया है। उम्र के इस मुकाम पर ‘जड़’ के प्रति उनका सम्मानपूर्वक स्नेह, प्रेम व उदगार अचानक नहीं फूटा है। फीजी, मारीशस और सुरीनाम सदृश्य देशों में फैले सभी सचेतन नागरिक अपने इतिहास से उतना ही जुड़ाव महसूस कर सकते हैं  जितना मानिक बच्छावत सहित हम। बाजारवाद और महानगरीय भागम भाग में देशज संवेदनाओं को बचाये रखने की जिजीविषा कि जैसे छिपा रहता है गन्ने में रस, मेंहदी में रंग और रेत में असंख्य जलस्रोत, कवि ने बीकानेरी माटी की सोंधी खुश्बू संग्रह की 45 कविताओं में उड़ेल दिया है - लूण जी बाबा, हसीना गूजर, तीजा बाई रोवणगारी, खुदाबक्स फोटोग्राफर, भूरजी छींपा, गपिया गीतांरी, तोलाराम डाकोत, मियां खेलार, जिया रंगारी, नत्थु पहलवान, जेठो जी कोचवान, जेसराज जी की कचैड़ियाँ, हमीदा चुनीगरनी जैसे अनेक पात्र, जो बीकानेर की यादों के साथ कवि के कवित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा बन ताउम्र जुड़े रहने को संकल्पित दिखते हैं। देखें बानगी - कविता ‘मेहतरानी’ -........ मेरी पत्नी आए दिन उसे/ कुछ न कुछ देती है/ कहती/ उसका कर्ज इस जन्म में/ नहीं चुकेगा/ राधारानी भी कहती/ अपना फर्ज निबाहेगी/ जब तक जिएगी/ बाईसा की हवेली पर आएगी। 
गोदना गोदने की कला में माहिर ‘नैणसी गोदारा’ के हुनर का किस तरह बाजारीकरण हुआ है, कवि मर्माहत हो लिखाता है - अब यह पेशा नैणसी से छूटकर/ ब्यूटी पार्लरों और फैशन की दुनिया में/ पहुँच गया/वह हजारों का खेल बन गया/ अब / यह प्राचीन गोदना कला से/ आर्ट आफ टैटूइंग होकर/अपना करिश्मा दिखा रहा है/ ऐसे में अब नैणसी कहाँ होगा ? बीकानेर की महान विरासत में जो साझी संस्कृति रही है उसकी मिसाल ‘पीरदान ठठेरा’ में दिख जाता है - पीरदान/ आधा हिंदू था आधा मुसलमान/वह ठठेरा कहता मैं/ इस बर्तनों की तरह हूँ जिनका/ कोई मजहब नहीं होता। वहाँ ‘हसीना गूजर’ बेरोक-टोक लोगों तक / दूध पहूँचायेगी/ कौमी एकता का गीत गायेगी। यहाँ कवि वर्तमान के जटिलतर रिश्तों के लिए गरिमायम आश्वस्ति प्रदान करता दिखता है। कवि अपने कोमल अनुभूतियों, स्मृतियों तथा बीकानेर के समाज संस्कृति और परिवार को बड़े कैनवस पर सजीवता से पेश कर ‘अपनी माटी’ (बीकानेर) को समर्पित कर उऋण होने का प्रयास किया है। मानिक बच्छावत देश के चर्चित कवि रहे हैं, इनकी कविताएं तमाम स्तरीय पत्रिकाआ में प्रकाशित होते रही है ‘इस शहर के लोग’ साहित्य जगत के लिए एक नायाब तोहफा है।

मानिक बच्छावत
समकालीन सृजन
20, बालमुकुंद मक्कर रोड
कोलकाता- 700 007
मोबाइल - 09830411118.
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मंगलवार

शीतल वाणीः शमशेर बहादुर सिंह स्मृति अंक



ज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर शिल्प में एक अर्थ में जयशंकर प्रसाद के बहुत करीब हैं। तीनों ही जटिल संवेदनाओं के कवि हैं। तीनों की मित्रता भी अनायास नहीं है। तीनों की जटिलता तीन तरह की है। मुक्तिबोध मार्क्सवाद का सिद्धांत-कथन करते हैं। उनकी कविता में पैठ के लिए मार्क्सवाद का अध्ययन आधार बनता है। समाज और जीवन की समझ सहायक बनती है। बहुत बड़ा फलक है वहाँ। निजी चिंताओं को भी वह सामाजिक समस्या के बीच में रख कर पेश करते हैं। इसके विपरीत शमशेर अपने में डूबे हुए । प्रकृति उन्हें अपने अंदर ले जाती है। कवि का ‘मैं’ और उसकी कविता एक हो जाते हैं सब कुछ एक हो जाता है। अतीत की स्मृतियां, अपनी रचना प्रक्रिया, प्रकृति और अपनापन सब एकमएक हो जाते हैं। मुक्तिबोध बाहर जाते हैं, शमशेर अंदर। एक को रोशनी पसंद है दुसरे को अंधेरा। एक में समाज ही समाज, दूसरे में मैं ही मैं।
                                                                                                                                                - इब्बार रब्बी
शमशेर की कविता

धूप कोठरी के आइने में खड़ी

धूप कोठरी के आइने में खड़ी
हँस रही है

पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कुराते 
मौन आँगन में

मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ

एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को 
बहुत नन्हा फूल 
उड़ गई

आज बचपन का  
उदास मा का मुख
याद आता है।

शीतल वाणी
संपादक‘ डा. वीरेन्द्र ‘आज़म’
2 सी/175 पत्रकार लेन, प्रद्युमन नगर,
मल्हीपुर रोड, सहारनपुर, उ.प्र.
मोबाइलः 09412131404.  

पूनम सिंह की ‘कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियाँ’



र्जन भर कहानियों  को खूबसूरत फ्रेम में जड़ कर समकालीन कथा-परिदृश्य को समृद्ध व गतिशील बनाते हुए कथा लेखिका पूनम सिंह की कथाएँ-
‘कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियाँ’ संग्रह के रूप में  सामने आयी है। उन्होंने इस माध्यम से स्त्री-विमर्श पर एक नयी दृष्टि के साथ एक और सांकल खोलती है। अपनी कहानियों में वे जहाँ स्त्री-पुरूष के रिश्तों पर पुरूष की वर्चस्ववादी नजरिये को चुनौती देते दिखती है वहीं कहानी ‘कैंसर’ में स्त्री की व्यामोहिक महत्वाकांक्षी उड़ान से खंडित होते परिवार का चित्रण करती है। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ भूमंडलीयकरण और बाजारवाद के यथार्थ से उत्पन्न ‘माल-कल्चर’ वाले ऐसे वर्ग की कहानियाँ है जहाँ, ‘प्रेम, सेक्स और धोखा’ के साथ भौतिकता का ताना बाना है, जो अक्सर संवेदनाओं में सूराख करती दिखती  है। गहन सूक्ष्मता संजोए संग्रह की तमाम कहानियों की भाषा में प्रवाह, सुदृढ़ शिल्प एवं फलक बहुरंगी हैं। औरत-मर्द के सम्बन्ध, पारिवारिक जीवन, ग्रामीण राजनीति जैसे विषयगत वैविध्यता का एक नया अध्याय खोलता है यह संग्रह। कहानियों की अन्तर्वस्तु इस समय और भावी समय की भयावहता की बारीकियों से विश्लेषण करते दिखती है।
कविता सहित कहानियों में समान दखल रखनेवाली पूनम की रचनाएँ - हंस, वसुधा, दोआबा, अक्षरा, वागर्थ’ वर्तमान साहित्य व जनमत सदृश्य पत्रिकाओं में सराही गयी हैं। ‘कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियाँ ’ कथा-जगत के लिए पूनम सिह का एक नायाब तोहफा है जिसका पुरजोर स्वागत किया जा सकता है...।

संपर्कः पूनम सिंह
प्राघ्यापकः हिन्दी विभाग,
एम.डी.डी.एम. कालेज, मुजफ्फरपुर, बिहार
मोबाइलः 09431281949.

शुक्रवार

जर्मन कवि हास्ट्र बिंगेल की एक कविता-


घटनास्थल

यह घटनास्थल
घृण्य है हम काफी कुछ मिलते हैं
बिल्लियों और कुत्तों से प्यार
बेजान सुबहें
एक आदमी मर जाता है
यहाँ
वे पेड़ लगाते हैं मौत
कोई विश्ष्टि व्यक्ति नहीं
कल स्कूल से छुट्टी हुई ही थी
एक लड़का गाड़ी के नीचे कुचला गया
पौन घंटे पड़ा रहा पटरी पर अगर मुझे
डर न होता कि कोई देख लेगा
मैं उसे कम्बल ओढ़ा आता ।

हास्ट्र बिंगेलः जन्म - 6.10.1933., हेस्सेन, फ्रेंकफुर्त्त में निवास, संपादन, कहानियाँ एवं कविता की कई पुस्तकें प्रकाशित।1965 में ‘फ्रांकफुर्त्त-साहित्य-गोष्ठी’ की स्थापना।

सोमवार

‘मड़ई’ का यह अंक



स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सांस्कृतिक नवचेतना तथा वर्तमान भारतीय रंगमंच को समृद्ध करने मे लिए कई कलाकारों ने अपने को समर्पित किया। अपनी रंग प्रतिवद्धता व विशिष्ठ रंग रचना के लिए चार नाम प्रायः लिए जाते हैं -ये हैं शंभु मित्र, उत्पल दत्त, इब्राहिम अल्काजी और हबीब तनवीर। ये लोक मंच के अनमोल धरोहरें हैं । लोकरंग कर्म के अतिरिक्त लोक गीत, लोक कथा, लोकाख्यान आदि लोक साहित्य भी भारतीय लोक जीवन और लोक संस्कृति के अविच्छिन्न अंग है। ‘मड़ई’ इन्हीं लोक संस्कृतियों को सहेजे कर रखने का जो स्तुत्य कार्य कर रहा है वह भारतीय प्रिंट मीडिया के विकास का एक गौरवशाली अध्याय है। प्रस्तुत अंक ‘मड़ई’- 2009 में लोक साहित्य - संस्कृति से जुड़े 38 आलेखों के खोजपूर्ण भंडार हैं -जो समग्र रूप में भारतीय क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं, लोक जीवन और लोक संस्कृति पर गहन प्रकाश डालते हैं। यह अंक भावी पीढीयों में सांस्कृतिक आत्मविश्वास भरने में सक्षम होगा- यही आशा की जाती है। सारे आलेख पठनीय, मननीय तथा स्तरीय हैं। इसकी उपयोगिता हर काल में बनी रहेगी।

मड़ई
सम्पादक: डा. कालीचरण यादव
बनियापारा, जूना बिलासपुर, बिलासपुर-495001.
मो.- 098261 81513.

शुक्रवार

समय के खुरदरे चेहरे को बेनकाव करती ‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’



‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’ कथा लेखिका उषा ओझा की पन्द्रह कहानियों का समुच्य है, ये कहानियाँ भाषिक चमत्कार से बचते हुए पतझड़ का प्रतिरोध करती है। संवेदनाओं एवं वैचारिकता के द्वन्द से बुने गये इस ‘परदे’ में कई रंग-बदरंग शेड्स हैं जो समय के कैनवस को कोमल-कठोर अनुभूतियों का एलबम-सा बनाते हैं। ये कथाएँ समकालीन कथा परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराती है। कहानियों में विषयगत वैविध्य है तो कला-शिल्पगत वैविध्य भी। संग्रह की तमान कहानियों का कथ्य-शिल्प अंततः जड़ व्यवस्था के विरूद्ध मुख़ालफत का परचम लिए खड़ा दिखता है। उषा ओझा की कथाएँ कथा क्षितिज पर अपना मुकम्मल स्थान बनाती है। 
समकालीन कथा लेखन में उषा ओझा का हस्तक्षेप अक्सर दिख जाता है- हंस, कथादेश, कथाक्रम, जनपथ  आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कहानियाँ पठनीय हैं। ‘जूही की बेल’ कहानी संग्रह एवं ‘बहाव’ उपन्यास के बाद ‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’ से इन्होंने कथा-जगत में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज की है, जो स्वागतेय है।

- उषा ओझा
फ्लैट नं. 3, ब्लाक नं. 15
अदालतगंज, पटना- 1.
मो. 09835217799.

मंगलवार

शांति यादव की दो ग़ज़लें





हंडी में फिर पत्थर खदका
बच्चा थोड़ी देर को चहका। 
मां ने ली झूठी अंगड़ाई
मानो घर खुश्बू से महका।
सोये बच्चे सुबक-सुबक जब
ज़ख़्म पुराना धीरे टहका।
आंखों के तूफां से डरकर
आंचल चुप-चाप नीचे ढलका।
कहती है सरकार बेधड़क
यहाँ न कोई भूखा मरता।

झुलसी फसलें, खलिहानों में रेत लिखेंगे
लिखने वाले सोच रहे हैं खेत लिखेंगे।
नेता जनता के बूते की बात नहीं 
ठेठ हकीकत, संविधान अब सेठ लिखेंगे।
संरक्षण है वन्य प्राणियों को कानूनन
आदम की बस्ती में अब आखेट लिखेंगे।
मंडी में कागज के ऐसे भाव लगे हैं
छोड़ कहानी-कविता बस हम ‘रेट’ लिखेंगे।
आंखों में बस एक तिरंगा औ होंठों पर
जन-गण-मन कबतक खाली पेट लिखेंगे।

शांति यादव - 'चुप रहेंगे कब तलक’ एवं ‘उदास शहर में’ नाम से ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित।
सम्पर्क- इन्द्रधनुष, बायपास रोड, मधेपुरा, बिहार।
मोबाइल:- 09431091815.

सोमवार

एक अवांछित अ-पाठकीय प्रतिक्रिया / प्रसंग विभूति नारायण राय....

अशोक गुप्ता / कथाकार एवं आलोचक
रअसल हिन्दी साहित्य की दुनिया में लोग अपना मत अभिमत स्थितियों की स्वंतंत्र मेरिट पर, यथा समय  व्यक्त नहीं करते बल्कि उसे शातिराना ढंग से खुद का दामन बचाते हुए, किन्ही भी अप्रत्यक्ष  मुद्दे पर हो-हल्ले के  बीच व्यक्त करते हैं जिसमें सही मुद्दा लगभग लोप हो जाता है.
  कालिया जी का विरोध यहाँ उनकी बहुत सी किन्हीं दीगर वज़हों से हो रहा हो सकता है, जो संभवतः सही भी हों लेकिन तब लोग अपने निजी स्वार्थ के कारण चुप रहे, अब विभूति के बहाने जब एक शोर मचा तो सब इस उस समय की कसर एक साथ निकालने लगे. यह केवल एक शामिल बाजे में अपनी आवाज़ मिलाना हुआ. मैं इसे न रचनात्मक मानता हूँ, न साहसिक.।

शनिवार

पटना में फ़ैज अहमद फ़ैज का जन्मशताब्दी समारोह

चित्र में बायें से - अरविन्द श्रीवास्तव, शहंशाह आलम, राजेन्द्र राजन, डा. इम्तियाज अहमद, डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. अली जावेद, शकीलसिद्दिकी, अरुण कमल,कर्मेन्दु शिशिर.....डा. व्रज कुमार पाण्डेय
 बिहार प्रगतिशील लेखक संध के तत्चावधान में माध्यमिक शिक्षक संध, पटना के सभागार में फ़ैज अहमद फ़ैज की जन्मशती समारोह  का आयोजन किया गया । समारोह की अध्यक्षता डा. इम्तियाज अहमद , निदेशक खुदाबख्श आरियंटल उर्दू लाइब्रेरी ,पटना ने की । मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार शकील सिद्दिकी, लखनऊ के साथ-साथ प्रलेस के राष्ट्रीय उपमहासचिव डा. अली जावेद थे कार्यक्रम का संचालन युवा कवि शहंशाह आलम ने किया।
कहा जाता है कि गालिब के बाद उर्दू का सबसे बड़ा लोकप्रिय शायर फैज़ हैं। इतनी लोकप्रियता उन्हें उनकी शायरी के कारण मिली। जुल्म, अन्याय, बर्बरता एवं शोषण के विरूद्ध समर्पित होकर लिखने वाले फ़ैज़ को इस कारण से सितम कम नहीं उठानी पड़ी। जेल जाना पड़ा । फांसी के फंदे उनके लिए पाकिस्तान हुकूमत ने तैयार कराई थी। तब भी समाज और दुनिया को बदलने की लड़ाई वह अपनी कलम और जेहन से लड़ते रहे । तभी तो लिखा -
‘ बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्म-ओ जबाँ की मौत के पहले
बोल, कि सच जिन्दा है अबतक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले।’
फ़ैज ने प्रगतिशील कविता के साथ-साथ प्रगतिशील आन्दोलन को व्यापकत्म अर्थ दिए। फ़ैज के साहित्यिक योगदान को देखते हुए बिहार प्रगतिशील लेखक संध ने फ़ैज़ का जन्मशताब्दी समारोह मनाने का निर्णय लिया ।
इस अवसर पर बिहार प्रलेस के महासचिव राजेन्द्र राजन, चर्चित कवि अरुण कमल, वरिष्ठ आलोचक डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. व्रज कुमार पाण्डेय आदि ने अपने महत्वपूर्ण विचार उपस्थित श्रोताओं के समक्ष रखे। समारोह में कर्मेन्दु शिशिर, डा. संतोष दीक्षित, अनीश अंकुर, डा. रामलोचन सिंह, वद्रीनारायण लाल, डा. विजय प्रकाश, परमानन्द राम एवं अरविन्द श्रीवास्तव आदि की उपस्थिति रही।
‘हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी.....
....सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे।’
-फ़ैज

शुक्रवार

....... तुम ही सो गये दास्ताँ कहते कहते। गज़लकार वसन्त नहीं रहे....


गीत एवं गज़ल के चर्चित हस्ताक्षर - वसन्त (मुरलीगंज) इस दुनिया में अब  नहीं रहे- यह कहते ही जुबान लड़खड़ा जाती है....अपने गज़ल और गीतों से मंच पर छा जाने वाले वसंत इस तरह अचानक लुप्त हो जायेगा, अविश्वसनीय लगता है। कोसी क्षेत्र की पहचान के रूप में वसन्त ने बिहार एवं अन्य प्रान्तो में अपने फन से बेहद शोहरत कमाया, देश की चर्वित पत्रिकाओं ने उनके गीत और गज़ल को ससम्मान प्रकाशित किया। कोसी क्षेत्र से प्रकाशित पहला साप्ताहिक ‘कोसी टाइम्स’ का उन्होंने प्रकाशन एवं संपादन किया।
वरिष्ठ कवि व गीतकार सत्यनारायण (पटना) का मानना है कि - वसन्त की गज़लों में अहसास की तपिश है, एक मासूम-सा मिज़ाज है और वे धड़कते  भी हैं.......।  उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार तथा कौशिकी क्षेत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षय श्री हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’ ने कहा कि वसन्त नवगीत से गज़ल के क्षेत्र में आये थे, यही कारण है कि नवगीत की रागचेतना और उसकी विम्बधर्मिता समग्र रूप में इनकी गज़लों में दिखती है। डा. भूपेन्द्र’ मधेपुरी का मानना है कि वसन्त के गजलों में नवगीत के मुहावरे, उसकी शब्दावली और उनकी आन्तरिक बुनावट बहुत ही आकर्षक है कवि धीर प्रशांत का मानना हे कि बसन्त की गज़लों में उर्जा’ है और अंतरंगता । चर्चित कवि शहंशाह आलम ने वसन्त को कोसी का खिला हुआ एक अलौकिक पुष्प कहा। गजलकार अनिरूद्ध सिन्हा  एव अरविन्द श्रीवास्तव ने अपने अश्रुपूरित नयनों से उन्हें नमन किया।   उनकी चर्चित कृति ‘एक गज़ल बनजारन’ और ‘कुर्सियों का व्याकरण’ एक धरोहर है हमारे बीच।
पिछले दिनों दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित उनकी एक गज़ल को देखें -

लगने लगा है बिस्तर बाहर दलान में 
बूढ़े के लिए अब नहीं कमरा मकान में।

प्रस्तुत है उनकी पुस्तक ‘एक गज़ल बंजारन’ की पहली गज़ल-

पहले पन्ने में राजा का हाथ खून से सना लिखा है
मनमानी की इस किताब में आगे दुख दुगुना लिखा है

इससे भी पहले अंधों ने अपनों को बांटी रेवड़ियां
भैया तेरी मेरी किस्मत में केवल झुनझुना लिखा है

अपनी कुदरत को बचपन से फाकामस्ती की आदत है
कई दिनों से चौके  की पेशानी पर बस चना लिखा है

इस सियासती बाजीगर को शायद यह मालूम नहीं कि
टूट गया शहजोर फैलकर जब भी हद से तना लिखा है

ज़र्द धूप का टुकड़ा आकर बोल गया कल पत्तों से यूं
चन्द रोज है और कुहासा इसको होना फना लिखा है

एक रोज नेकी ने सोचा मिलें जरा फिर इन्सानों से
देखा हर धर के दरवाजे अन्दर आना मना लिखा है

पत्थर फेंक रहे लोगों का सुनते हैं तू सरपरस्त है
तेरा धर तो खास तौर से शीशे का बना लिखा है । 

‘जनशब्द’ एवं ‘कोसी खबर’ परिवार कवि वसन्त की निम्न पंक्तियों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा निवेदित करता है -
थे नहीं उतने बुरे दिल के वसन्त जी
उठी जब मैयत कहा सबने वसन्त जी
क्या गये जो रूठ कर हमसे वसन्त जी
फिर नहीं हमको दिये रब ने वसन्त जी

तस्वीर में (दायें से बाये) काव्यपाठ करते वसन्त, अरविन्द श्रीवास्तव, हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’, आदित्य, डा. मनमोहन सिंह (पंजाबी शायर एवं आरक्षी अधीक्षक ) .डा भूपेन्द्र नारायण यादव ‘मधेपुरी’ एवं दशरथ सिंह।

रवीन्द्र कालिया को ज्ञानपीठ से बाहर किया जाय -उद्भ्रांत


हिन्दी के वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत ने विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया प्रकरण के संदर्भ’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इन दोनों व्यक्तियों की मानसिकता अपने लेखन और व्यवहार में प्रारम्भ से ही स्त्री विरोधी रही है और इन दोनों की मिलीभगत ने मौजूदा समय में एक ऐसा गर्हित उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है जिसकी मिसाल सौ साल मे इतिहास में नहीं मिलेगी । और पहली बार ऐसा हुआ है कि समूचा हिन्दी समाज इनकी अश्लील जुगलबंदी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। अगर ज्ञानपीठ के प्रबंधकों ने कालिया को तत्काल प्रभाव से वर्खास्त नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब ज्ञानपीठ को हिन्दी के एक भी सुरूचि सम्पन्न पाठक की कमी महसूस होगी । जहाँ तक विभूति नारायण की बात है उनका तो मूल चरित्र पुलिसिया मानसिकता वाला ही है, भले ही सरकारी दवाब में अपनी नौकरी बचाने के लिए उन्होंने माफी अभी मांगी हो लेकिन उनका जाना भी निश्चित है। यह भी विश्वास है कि भविष्य में कोई भी हीन मानसिकता से ग्रस्त रचनाकार या व्यक्ति इस तरह के अश्लील शब्द को सार्वजनिक मंच से प्रयोग करने से पहले हजार बार सोचेंगे । मैं विष्णु खरे के जनसत्ता में दो अंको में प्रकाशित लेख का शत प्रतिशत समर्थन करता हूँ अगर कालिया को ज्ञानपीठ से तुरत बाहर नहीं किया गया तो भारतीय ज्ञानपीठ जिसका गौरवशाली इतिहास है आनेवाले पीढियों की नजरों में एक पतनशील संस्था के रूप में पहचानी जायेगी।
                  
- उद्भ्रांत
वरिष्ट कवि, दूरदर्शन के पूर्व उप महानिदेशक
मो- 09818854678.

बुधवार

कालिया और उनकी ‘टीम’ को ज्ञानपीठ से बाहर किया जाय.... - शहंशाह आलम


इनदिनों हिन्दी साहित्य परिदृश्य में जो कुछ अरोचक, अवैचारिक तथा असाहित्यिक घट रहा है। दुखद है। उत्तेजित करने वाला है।
वरिष्ठ कथाकार तथा महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविधालय के कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ बेवफाई सुपर विशेषांक के लिए ली गयी अपनी बातचीत में लेखिकाओं के प्रति आपत्तिजनक शब्द और उनके लेखन पर अपनी राय देते हुए जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं नाकाविल-ए-वर्दाश्त है।
मेरी दृष्टि में, विभूति नारायण राय से अधिक दोषी ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक होने के नाते रवीन्द्र कालिया जी हैं, जिन्होंने उनकी ऐसी टिप्पणी को बिल्कुल गैर जिम्मेदाराना ढंग से छापा दरअसल, रवीन्द्र कालीया जी जबसे ज्ञानपीठ के निदेशक बने हैं, ज्ञानपीठ की गरिमा धूमिल हुई है। ‘नया ज्ञानोदय’ के जैसे-जैसे असाहित्यिक और बाजारू अंक उनके संपादन में आ रहे हैं, वेहद अफसोसनाक हैं । 
रवीन्द्र’ कालिया जी ‘ज्ञानपीठ’ जैसी गरिमामयी संस्था की शीर्ष पर बैठ कर न्याय नहीं कर पा रहे हैं । इसलिए मेरी मांग है कि रवीन्द्र कालिया जी को तुरत ज्ञानपीठ के निदेशक पद से इस्तीफा  दे देना चाहिए तथा ऐसे कृत्यो मे शामिल उनके सहयोगियों को भी ज्ञानपीठ से निकाल-बाहर करना चाहिए।
     
- शहंशाह आलम, युवा कवि

मो.- 09835417537

रविवार

आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है...... वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीतः-

ज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है......
वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीतः-

अरविन्द श्रीवास्तव- भूमंडलीयकरण और बाजारवाद में आप युवा कवियों से क्या-क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
अरुण कमल- मुझे कभी किसी कवि से कोई अपेक्षा नहीं होती । कवि जो भी कहता है मैं उसे सुनता हूँ। अगर उसकी धुन मेरी धुन से , मेरे दिल की धड.कन से , मिल गयी तो उसे बार-बार पढ.ता हूँ।दूसरी बात यह कि युवा कवि कहने से आजकल प्रायः किसी ‘कमतर’ या ‘विकासशील’ कवि का बोध होता है जो गलत है। दुनिया के अनेक महान कवियों न अपनी श्रेष्ठतम रचनाएँ तब रचीं जब वे युवा
थे। इसलिए हिन्दी के युवा कवि जो लिख रहे हैं मैं उसे हृदयंगम करने की योग्यता पा सकूँ, मेरा प्रयत्न यही होगा। अपेक्षा कवि से नहीें पाठक से है।
अरविन्द श्रीवास्तवः आप युवा कवियों के प्रेरणास्रोत रहे हैं अपने लेखन के आरम्भिक दिनों आपने किन से और कहाँ से प्रेरणा ग्रहण की ?
अरुण कमलः मैं कभी किसी का प्रेरणास्रोत नहीं रहा। अपने पहले के कवियों एवं बाद के कवियों - दोनों तरफ से मैने प्रायः प्रहार झेले हैं, जिसका मुझे कोई गम नहीं है। मेरे प्रेरणास्रोत शुरू में धूमिल भी थे, फिर नागार्जुन-त्रिलोचन और निराला। मैं विस्तार से इस बारे में पहले कह चुका हूँ जो मेरी पुस्तक - ‘कथोपकथन’ में संकलित हैं। अभी मेरे प्रिय कवि निराला तो है हीं तुलसी, कबीर, गालिब, नजीर और शेक्सपीयर हैं। और सबसे प्रिय ग्रंथ ‘महाभारत’।
अरविन्द श्रीवास्तवः ‘अपनी केवल धार’ सहित आपके चारों कविता संग्रह में आपका सर्वाेतम काव्य कर्म किसे माना जाएगा ?
अरुण कमलः मैंने जो कुछ लिखा वो उत्तम भी नहीं है। अधिक से अधिक वह अधम कोटि का है। मैं अच्छा लिखना चाहता हूँ लेकिन वह मेरे वस में नहीं है। देखें क्या होता है।
अरविन्द श्रीवास्तव- इधर के पन्द्रह-बीस वर्षों में विशेषकर सोवियत संध के विघटन के पश्चात समकालीन कविता लेखन में अगर कुछ विचारधारात्मक बदलाव आया है, तो उसे आप किस रूप में लेते हैं ?
अरुण कमल-  आज कविता , साहित्य मात्र तथा कला और यहाँ तक कि राजनीति मेें भी राजनीति कम हुई है । माक्र्स के अनुसार राजनीति का अर्थ है वर्ग- संघर्ष   और सत्ता पर अधिकार के लिए दो वर्गों के बीच का संघर्ष । वर्ग-संधर्ष का स्थान अब जाति, क्षेत्र, लिंग, सम्प्रदाय आदि ने ले लिया है जो पूँजीवाद प्रेरित उत्तर आधुनिक दर्शन तथा व्यवहार का केन्द्र है । समाज में अनेक अन्तर्विरोध या अंतःसंघर्ष होते हैंं, किसी को झुठाया नहीं जा सकता ।  लेकिन एक मुख्य अंतर्विरोध होता है जो मेरी समझ से आर्थिक है और इसलिए वर्ग-आधारित। आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड.ी है। मनुष्य को नष्ट करने वाले पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध कम पड.ा है।  इसका असर यह भी हुआ है कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक प्रश्न पर यहाँ तक कि शुद्ध कलागत प्रश्नों पर भी, अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है। अगर आप सर्वेक्षण करके आज के लेखकों से पूछें कि उन्हें कौन से कवि पसंद हैं तो वे प्रायः खामोश रहेंगे । आप पिटते रहें पर वे तमाशा  देखते रहेंगे । मुझे ब्रेख्त की कविता याद आती है जिसमें भाषण के अंत में वह आदमी मजमेंं में एक पुर्जा घुमाता है कि आप दस्तखत कर दो, लेकिन भीड. छँट जाती है, कोई दस्तखत नहीं करता । पुर्जे पर लिखा था ः ‘दो जोड. दो बराबर चार’। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो निडर होकर यह भी कह सकें कि उन्हें उड.हुल  का फूल सुंदर लगता है।  
अरविन्द श्रीवास्तव समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में कविता समाज से कटती जा रही है आलोचकों ने ‘कविता के बुरे दिन’ की धोषणा कर दी है, जब कि बडी आबादी कविता से उम्मीद लगाये हुई है? इस कसौटी पर नये कवि कहाँ खडे. उतर रहे हैं ?
अरुण कमल ः मैं नहीं समझता कि कविता कटती जा रही है। बल्कि समाज ही कविता से कटता जा रहा है। समाज को ऐसा बनाया जा रहा है, बनाया गया है कि वह सभी  विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट कर केवल ‘आइ पी एल’ की शरण में चला जाए। जो भी रचना या शक्ति मुनाफे का विरोध करेगी उसे बाहर कर दिया जाएगा। अगर करोड.ों लोग भूखे सो रहे हैं तो यह मत कहिए कि अन्न उनसे कट गया है, कहिए कि पूँजीवादी सरकार और व्यवस्था ने उनसे अन्न छीन लिया है। यही बात कविता और कला और विज्ञान के साथ भी है।
अरविन्द श्रीवास्तवः  साहित्यिक जगत खेमेबाजियों से ग्रसित होते जा रहे हंै क्या इससे ‘नवलेखन’ प्रभावित होते नहीं दिख रहा ?
अरुण कमल ः मुझे सबसे ज्यादा कोफ्त ऐसी ही बातों से होती है। साहित्य में, जैसे कि दर्शन और विज्ञान में, मूल्यों के बीच संधर्ष होता हैै। यह गुटबाजी नहीं हैै। यह खेमेबाजी  नहीं हैै। मान लीजिए मुझे निराला प्रिय हैै। रामविलास शर्मा को भी। नामवर सिंह को ै। विश्वनाथ त्रिपाठी, नंद किशोर नवल, खगेन्द्र ठाकुर जी एवं परमानन्द जी को भी। शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन को भीै। तो क्या इसे गुटबाजी कहेंगे ? दूसरी तरफ आप लाख माथा पटकेंगे, फिर भी न तो मैं फलाँ जी को न अमुक जी को अच्छा कवि मानूँगा।  आप कहेंगे यह तो जातिवाद है, यह तो विचार धारावाद है, यह तो गुटबाजी हैै। कहते रहिए लेकिन ‘तजिए ताहि कोटि बैरी सम.......जाके प्रिय न राम बैदेहि। साहित्य में खेमेबाजी नहीं होती। एक जैसा सोचने, पसंद करने, विश्वास करने वाले लोग एक साथ होते हैं, फिर भी लड.ते झगड.ते रहते हैं - यही होता।
अरविन्द श्रीवास्तवः अभी युवा कवियों की भावधारा से आप कितना आशान्वित हैं ? कौन से युवा कवि आपको आकर्षित कर रहे हैंं ?
अरुण कमलः मैं शुरू में इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ। आपका पहला प्रश्न इस बारे में ही तो है। जबतक मैं किसी कविता को बार-बार न पढूँ तबतक प्रभावित नहीं होता। बहुत से प्रतिभाशाली कवि हैं उन्हें ‘काँटों की बाड.ी’ में अपना रास्ता ढूंढने दीजिए जो सबसे ज्यादा लहूलुहान होकर आएगा वही मेरा प्रिय होगा; जो ‘कागद की पुडि.या’  भर होगा वह गल जाएगा।
 अरविन्द श्रीवास्तवः इधर नई कविताओं में नये-नये प्रयोग हो रहे हैं, इसे रंगमंच पर खेला जा रहा है, पेंटिंग, पाठ और संगीत के माध्यम से आमजन तक पहुँचाया जा रहा है इसे आप किस रूप में लेते हैं? क्या इससे मूल कविता की गरिमा का अवमूल्यन तो नहीं हो रहा है  ?
अरुण कमलः मूल कविता अपनी जगह अक्षत होती है। बाकी उसके अनेक पाठ या रूपांतर होते हैं; जितने पाठक उतने पाठ - ठीक ही तो है फिर भी वह मूल पात्र ज्यों का त्यों दूध से भरा होता है, सबके छकने के बाद भी।
अरविन्द श्रीवास्तवः आज युवा कवियों द्वारा कविताएँ लिखी जा रही है उसे ‘उत्कृष्ठता की विश्व मानक कसौटी’ पर कितना खड.ा पाते हैं ? हिन्दी कविताओं का अनुवाद विश्व की अन्य भाषाओं मे हो, इस दिशा में हो रहे कार्य से आप कितना संतुष्ट दिखते हैं ?
अरुण कमलः अभी तक तो निराला के भी अनुवाद नहीं हुए। मुझको नहीं मालूम कि प्रसाद, पंत, महादेवी या मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर का ही कितना अंग्रेजी में भी अनुदित है, दूसरी भाषाओं को यदि छोड. भी दें। हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेजी विभागों का पहला काम यही होना चाहिए तथा अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहिए। हर महान कविता पहले अपनी भाषा में महान होती है।
अरविन्द श्रीवास्तव ः. पुरस्कार पाने की ललक नये कवियों में दिखने लगी है, इससे उसकी रचनाधर्मिता प्रभावित होती है, वे शार्ट-कार्ट रास्ता अपनाने लगे हैं। किसी कवि की कविता का उचित मूल्यांकन हो इस दिशा में किस पहल की जरूरत है ?
अरुण कमल ः पुरस्कार -पद -सम्मान, या निरन्तर विरोध, या उपेक्षा- ये सब इस कविता के भव के भाग हैं। जो सच्चा कवि है उसके लिए पुरस्कार और प्रहार दोनों बराबर हैं। जो पिटा नहीं, जो लगातार पिटा नहीं वह कवि कैसा?, जिसका अर्थी - जुलूस जितना ज्यादा निकले उसकी आयु उतनी ही ज्यादा होगी। कोई मूल्यांकन अंतिम नहीं होता।
अरविन्द श्रीवास्तवः गांव-कस्बे एवं छोटे शहरो के कवियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए राजधानियों के चक्कर लगाने पड.ते है ? वे राष्ट्रीय क्षितिज पर उपेक्षित महसूसते हैं ?
अरुण कमलः जो पहचान बनाने के लिए व्यग्र हंंैंं वह कवि नहीं हैं जो कवि होगा वो केवल कविता रचेगा।
अरविन्द श्रीवास्तवः युवा कवियों की कविताएँ ब्लॉग पर आ रही हैं। डा. नामवर सिंह और विभूतिनारायण राय आदि ने ब्लॉग को सहित्य का हिस्सा माना है। युवा ब्लॉगरों से आपकी अपेक्षाएँ ?
अरूण कमलः मैं साधारण आदमी हूँ और कम्प्यूटर का ज्ञान मुझको नहींे है, दुनिया का सबसे सस्ता माध्यम लेखन है यानी कागज और कलम। मेरी दुनिया कागज कलम तक ही सीमित है।
अरविन्द श्रीवास्तवः  केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी आदि की परम्परा में आगे आप किन युवा कवियों को देखते हैंं ?
अरुण कमलः आपने जिन कवियों की सूची देकर परम्परा बनाने का प्रयत्न किया है उनमें से कम से कम एक मेरा नाम हटा दें । मैं उस पंक्ति का, उस पद का अधिकारी नहीं हूँ। इसे विनम्रता नहीं वास्तविकता माना जाए। दूसरी बात यह कि ये सारे कवि अभी भी सौभाग्य से सक्रिय हैं। परम्परा पीछे से बनती है। जो लोग बाद मेंं लिख रहे हैं उन्हें अभी थोड.ा लिखने दीजिए। अंधड.-तुफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी।
अरविन्द श्रीवास्तवः आपने साहित्य में कई मुकाम हासिल किये, कुछ ऐसा लगता है जो आप करना चाहते थे वह नहीं कर पाए ?
अरुण कमलः हाँ, जैसा मैनें अभी कहा मैं अभी भी बस लिखने की कोशिश में हूँ। जो चाहा वह नहीं हुआ।
अरविन्द श्रीवास्तवः गत दिनों विष्णु खरे साहब ने कुछ कवियों की कविताओं पर  प्रश्न चिन्ह लगाया था, सवाल खडे. किये थे.....
अरुण कमलः एक पंक्ति है मीर की- ‘कुफ्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक के लिए’। और कबीर की पंक्ति है- ‘श्वान रूप संसार है भूकन दे झकमार’। मुझे ‘मीर’ और ‘कबीर’ प्रिय हैं मैं उन्ही की आवाज के पर्दे में अपना काम करता हूँ।

       -कला कुटीर, अशेष मार्ग
         मधेपुरा-852 113. बिहार
                                                  मो.- 09431080862.

परिकथा- मई-जून, १० में प्रकाशित

बुधवार

शहंशाह आलम का ‘वितान’




मकालीन कविता के सशक्त कवि शहंशाह आलम की नयी कृति ‘वितान’ उनके काव्य फलक का वितान है, पगडंडियों से महानगर की यात्रा का महाभियान है। यह पुस्तक विपुल संभावनाओं का सामुच्य है, पुस्तक की कविताओं में कवि की  अदम्य जिजीविषा, विचारोत्तेजक भावधारा, नवीन शिल्प एवं कला  सुदृढ़ रूप में दिखती है। वैचारिकता और सम्वेदनाओं से बुनी गयी वितान की तमान कविताएँ समकालीन काव्य परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराती है। डा. रमाकांत शर्मा के अनुसार ‘डिप्रेशन के इस महादौर में शहंशाह आलम की कविताएं विश्वास को टूटने नहीं देती, बल्कि खूबसूरत दुनिया का ख़्वाब बनाए रखती है।’ बतौर बानगी प्रस्तुत है वितान से ‘स्त्रियां’ शीर्षक कविता  -

स्त्रियां हैं इसलिए
फूटता है हरा रंग वृक्षों से
उड़ रहे सुग्गे से

स्त्रियां हैं इसलिए
शब्द हैं वाक्य हैं छन्द हैं
विधियां हैं सिद्धियां हैं
भाद्रपद हैं चैत्र है

इसलिए अचरज है
अंकुर हैं फूटने को आतुर।

प्रकाशकः समीक्षा प्रकाशन
डा. राजीव कुमार
मोबाइल- 09471884999/09334279957.

सोमवार

‘देशज’ के देश में....




'देशज' पत्रिका का यह अंक शाहाबाद प्रक्षेत्र पर केन्द्रित है। शाहाबाद के अन्तर्गत चार जिले हैं जिनमें भोजपुर (आरा) बक्सर , रोहतास और कैमूर आते हैं, इन चार जिलों के रचनाकार वर्तमान समय में राष्ट्रीय फलक पर बेहद सक्रिय हैं मसलन् अरुण कमल, बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय, विमल कुमार, कुमार मुकुल, हरे प्रकाश उपाध्याय, सुधीर सुमन, राम निहाल गुंजन, जनार्दन मिश्र, प्रेम किरण आदि कई नाम हैं जो ‘देशज’ के इस अंक में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर अंक की महत्ता सार्थक कर रहे हैं। अंक में प्रकाशित तमाम कविताएँ समय के खुरदरे चहरे को उजागर करती है, प्रेम और प्रतिरोध का समवेत स्वर प्रकाशित कविताओं में दिख रहा है। कोमल व कठोर अनुभूतियों का यह शाहाबादी एलबम काव्य परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराता है। संवेदनाओं और वैचारिकता के द्वंद से बुनी गयी गायत्री सहाय, डा. आर. के. दूबे, मीरा श्रीवास्तव, संतोष श्रेयांस, जगतनन्दन सहाय, ओमप्रकाश मिश्र आदि की कविताएँ भी देशज को महत्वपूर्ण दस्तावेज की शक्ल देता है। संपादक अरुण शीतांश ‘अपनी धार’ के माध्यम से ‘देशज’ का प्रेम पाठकों में बांटते हैं हौसले और एक नए उम्मीद के साथ । देखें, अंक में प्रकाशित कविताओं की कुछ बानगी-
इस बाजार में 
मेरे पिता का खून 
और पसीना मिला हुआ है
मैं इस मकान को बेच नहीं सकता
क्योंकि मैं यह देख नहीं सकता 
इस बाजार में 
कोई खरीद ले
मेरे पिता का पसीना
और खून भी!
इस बाजार में / विमल कुमार

पहाड़ों के पीछे से 
आई बाध की हुंकार ऽ ऽ ऽ 
मैं काँप गया
डर मत
कहा रामदाना बेचने वाले बूढ़े ने
पहाड़ों के पीछे बाघ-बाघिन कर रहे हैं प्यार ।
मेरा डर / बद्री नारायण

देशज
संपादक: अरुण शीतांश
मणि भवन, संकट मोचन नगर,
आरा-802301. बिहार
मोबाइल - 09431685589.

शुक्रवार

हकार.... बाबा नागार्जुन के गांव से -




साहित्य की प्रगतिशील धारा के प्रतीक पुरुष बाबा नागार्जुन आज नहीं हैं लेकिन उनकी महान विरासत हमारे साथ है। बिहार के मिथिलांचल का एक गांव तरौनी इसलिए धन्य है कि वहीं नागार्जुन जैसे दुर्धर्ष कवि का जन्म हुआ था। उसकी रचनाओं में वहाँ की मिट्टी, पानी और हवा के सुवास हैं। मैथिली के इस महान रचनाकार ‘यात्री’ को वहाँ अत्याधिक सम्मान प्राप्त है।
बिहार प्रगतिशील लेखक संध ने अपने परमप्रिय कवि बाबा नागार्जुन की जन्मशताब्दी के अवसर पर 25 जून, 2010 को 2 बजे जन्मभूमि तरौनी में उनके अवदान को सम्मान देने हेतु राष्ट्रीय समारोह का आयोजन किया है।
मुख्यवक्ताः- डॉ. नामवर सिंह, 
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, 
डॉ. कमला प्रसाद, 
डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, 
डॉ. चैथी राम यादव, 
प्रो. अरुण कमल, 
प्रो. वेदप्रकाश, 
गीतेश शर्मा आदि हैं।

बिहार प्रलेस इकाई प्रबुद्ध साहित्यकारों-साहित्यप्रेमियों एवं प्रलेस सदस्यों को तरौनी आने का आमंत्रण देती है।
-महासचिव-सह-स्वागताध्यक्ष
राजेन्द्र राजन
मो.- 09471456304, 07631520875.  

देश व समाज के प्रति लेखकों की चिंता घटीः अरुण कमल



समकालीन साहित्यिक तथा सामाजिक परिदृश्य विषय पर विचार-गोष्ठी

 देश और समाज के प्रति लेखकों की चिंता घटी है। पहले लेखक सांप्रदायिकता, हत्या, बलात्कार, मंहगाई, बेरोजगारी के खिलाफ सड़क पर उतरते थे लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। वहीं ऐसे विषयों पर लेखकों के बयान भी कम आ रहे हैं।  ये बातें वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने पटना स्थित जनशक्ति भवन सभागार में बिहार प्रगतिशील लेखक संध द्वारा आयोजित ‘समकालीन साहित्यिक तथा सामाजिक परिदृश्य’ विषयक विचार गोष्ठी के दौरान कही। 
उन्होंने कहा कि आज आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है।  ग्रीन हंट के नाम पर अपने ही लोगों के विरुद्ध कार्रवाई हो रही है। उन्होंने कहा कि लेखकों को चाहिए कि वे जनआंदोलन का समर्थन करें आज की सत्ता सिर्फ पूँजीपतियों और विदेशियों को खुश करने में लगी है। विचार गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रसिद्ध आलोचक डा. खगेन्द्र ठाकुर ने कह कि आज युवा शक्ति को पूरे साल क्रिकेट के उन्माद में फंसाकर रखा जा रहा है। क्रिकेट ने युवा शक्ति को इस कदर भरमा दिया है कि वह भूख और बेरोजगारी के बारे में न सोचकर चीयर्स लीडर के बारे में अधिक सोच रहे हैं । उन्होंने कहा कि सरकार परिर्वतन हुआ, सत्ता परिर्वतन नहीं हुऔ। योगेन्द्र कृष्णा ने लेखक की इमानदारी को सबसे अहम बताया। अरविन्द श्रीवास्तव ने साहित्य के विस्तृत दायरे को बताते हुए कविता को संघर्ष का हथियार बताया तथा इंटरनेट पर कविता की विस्तृत दुनिया से अवगत कराया। इस अवसर पर डॉ. मुसाफिर बैठा, परमानन्द राम और हृदयनारायण झा आदि लेखकों ने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन चर्चित कवि शहंशाह आलम ने किया।   

शनिवार

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......- डा. बुद्धिनाथ मिश्र मधेपुरा में।




धेपुरा की ऐतिहासिक साहित्यिक परम्परा को सम्वर्द्धित करते हुए बी. एन मंडल विश्वविधालय, मधेपुरा के वर्तमान कुलपति डा. आर. पी. श्रीवास्तव के सद्प्रयास से विश्वविधालय के सभागार में काव्य संध्या का एक महत्वपूर्ण आयोजन किया गया। विश्वविधालय स्थापना के 17 वर्षों में यह पहला मौका था जब साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा (कविता)  पर रचनाकारों का इस तरह भव्य समागम हुआ। विशिष्ठ अतिथि एवं गीतकाव्य के शिखर पुरुष डा. बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून)  सहित अन्य कवियों को श्रोताओं ने जी भर सुना। कवियों में डा. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’, डा. कविता वर्मा, डा.पूनम सिंह, रमेश ऋतंभर (मुजफ्फरपुर) डा. रेणु सिंह, डा. एहसान शाम, रेयाज बानो फातमी, (सहरसा)  डा. विनय चौधरी, अरविन्द श्रीवास्तव (मधेपुरा) ने काव्य पाठ किया। डा. बुद्धिनाथ मिश्र ने एक मुक्तक से काव्य पाठ आरम्भ किया - राग लाया हूँ, रंग लाया हूँ, गीत गाती उमंग लाया हूँ। मन के मंदिर मे आपकी खातिर, प्यार का जलतरंग लाया हूँ।  

डा. मिश्र ने अपने कई गीतों का सस्वर पाठ किया, देखें कुछ की बानगी-

नदिया के पार जब दिया टिमटिमाए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आये.....

मोर के पाँव ही न देख तू
मोर के पंख भी तो देख 
शूल भी फूल हैं बस इक नजर
गौर से जिन्दगी तो देख.....

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे 
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो.......

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......

काव्य संध्या की अध्यक्षता करते हुए डा. रिपुसूदन श्रीवास्तव ने कविता को मानव हृदय का स्पंदन कहा। उन्होंने अपनी कविता कुछ इस तरह सुनायी-

जंग, धुआं, गम के साये में जैसे-तैसे रात ढ.ली
एक कली चटकी गुलाब की, सुबह जो तेरी बात चली........।

इस अवसर पर प्रकृति भी मेहरबान दिखी, बारिश की हल्की फुहार के साथ इस यादगार काव्य संध्या का समापन हुआ।

डा.बुद्धिनाथ मिश्र की कविताओं के लिए यहाँ क्लिक करें

गुरुवार

आलोक श्रीवास्तव और प्रेम भारद्वाज को लाला जगतज्योति प्रसाद सम्मान











र्चित युवा ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव और मासिक पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज को वर्ष 2010 का लाला जगतज्योति प्रसाद सम्मान दिया जाएगा। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय युवाओं को दिया जाने का यह प्रतिष्ठित सम्मान प्रतिवर्ष 4 अप्रैल को लाला जगत ज्योति प्रसाद की पुण्य तिथि पर दिया जाता है। इस सालउनकी बारवीं पुण्यतिथि पर समकालीन साहित्य मंच, मुंगेर की ओर से यह सम्मान, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और 'वागर्थ' पत्रिका के संपादक व आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह देंगे। पेशे से टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव अपने पहले ही ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' से इन दिनों ख़ूब चर्चा में हैं और हाल ही में उनकी ग़ज़लों को मशहूर गायक जगजीत सिंह व प्रख्यात शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल ने अपने एलबम्स में गाया है साथ ही प्रेम भारद्वाज द्वारा संपादित मासिक पत्रिका 'पाखी' ने बहुत ही कम समय में साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ठ जगह बनाली है। जिसे देखते हुए सम्मान समिति ने इस वर्ष के सम्मान हेतु इन दोनों युवाओं को चुना है। समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में डा. राम लखन सिंह यादव, डा. प्रेम कुमार ‘मणि’ डा. कुणाल कुमार एवं डा. भगवान सिंह मौजूद रहेंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र करेंगे। 4 अप्रैल 2010 को शाम 6.30 बजे मुंगेर के शिक्षक संघ में आयोजित होने वाले इस समारोह के संयोजक वरिष्ठ गजलकार अनिरूद्ध सिन्हा हैं।

अदब की अग्नि आभा है हिन्दी की अनन्य रचनाकार नासिरा शर्मा




नासिरा शर्मा का साहित्य जहाँ इलाहाबाद से ईरान तक फैला है, वहीं इनकी शख्सि़यत का दायरा भी अगम अपार है। पटना से प्रकाशित ‘राष्ट्रीय प्रसंग’ के ताजा अंक का विशिष्ट आकर्षण है समकालीन कथा साहित्य के चर्चित हस्ताक्षर नासिरा शर्मा। वह एक साथ -‘मरजीना का देश -इराक’ से लेकर ‘झाँसी का वह बूढ़ा किला और वेतवा का वह हरियाला जोवन’ के किस्से बुन और सुना सकती है। नासिरा की जन्मजात विद्रोही अन्तर्व्यक्तित्व से लबरेज है उनकी कथा शैली। ‘राष्ट्रीय प्रसंग’ का यह अंक हिन्दी में विश्वभाव की लेखिका नासिरा शर्मा के सम्बन्ध में भरपूर सामग्रियों से भरा है।
इसके अतिरिक्त चर्चित कवि सुधीर सक्सेना की चार कविताएँ ‘हरित बांस की बाँसुरी इन्द्रधनुष दुति होति’ को स्मरण करा देती है। प्रस्तुत है उनकी ’नियति’ कविता-

मैंने तुम्हें चाहा
तुम धरती हो गयी
तुमने मुझे चाहा 
मैं आकाश हो गया
और फिर 
हम कभी नहीं मिले , 
वसुंधरा!

‘राष्ट्रीय प्रसंग’
संपादकः 
विकास कुमार झा, पटना.
मोबाइल- 09835209149,  09891243926.

रविवार

आज ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक (रविवार रीमिक्स) में प्रकाशित अपनी तीन कविताएँ ब्लॉगर मित्रों के लिएः-




विरासत

अर्सा गुजर गया
जमींदोज हो गये जमींदार साहब

बहरहाल सब्जी बेच रही है 
साहब की एक माशूका

उसके हिस्से 
स्मृतियों को छोड. 
कोई दूसरा दस्तावेज नहीं है

                                                फिलवक्त, साहबजादों की निगाहें
                                               उनके दांतों पर टिकी है
                                               जिनके एक दांत में
                                               सोना मढ़ा है।

                             -अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा 

गुरुवार

सआदत हसन मंटो की लघुकथाएं


कम्युनिज्म

वह अपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लदवाकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया । एक ने ट्रक के सामान पर नजर डालते हुए कहा, ‘‘देखो यार, किस मजे से इतना माल अकेला उड़ाये चला जा रहा है।’’
समान के मालिक ने कहा, ‘‘जनाब माल मेरा है।’’
दो तीन आदमी हंसे, ‘‘हम सब जानते हैं।’’

एक आदमी चिल्लाया, ‘‘लूट लो! यह अमीर आदमी है, ट्रक लेकर चोरियां करता है।’’ 


पेशकश

पहली धटना नाके के होटल के पास हुयी फौरन ही वहां एक सिपाही का पहरा लगा दिया गया। दूसरी घटना दूसरे ही रोज शाम को स्टोर के सामने हुयी, सिपाही को पहली जगह से हटाकर दूसरी घटना की जगह भेज दिया गया। तीसरा केस रात बारह बजे लांडरी के पास हुआ, जब इंस्पेकटर ने सिपाही को इस नयी जगह पर पहरा देने का हुक्म दिया तो उसने कुछ देर सोचने के बाद कहा, ‘‘मुझे वहां खड़ा कीजिये जहां नयी घटना होने वाली है!’’ 

सोमवार

अरुणाचल को समझने का बेजोड़ प्रयास है ‘जनपथ’ का ताजा अंक



 तीन अन्तराष्ट्रीय सीमाओं - तिब्बत (चीन) भूटान और वर्मा से घिरे अरुणाचल प्रदेश को जानने-समझने का जो प्रयास ‘जनपथ’ ने किया है वह स्तुत्य है। अरुणाचल की बहुरंगी सांस्कृतिक विरासत के विविध दृश्यों को प्रस्तुत कर जनपथ ने हमारी जिजीविषा को एक सशक्त मुकाम दिया है।
अरुणाचल प्रदेश भारत के  का पूर्वोत्तर प्रहरी प्रदेश, जहाँ भारत-भू को सूर्य की प्रथम किरणें स्पर्श करती है। सघन वन तथा जैव एवं वानस्पतिक विविधता की दृष्टि से विश्व के समृद्धतम भू-भागों में एक यह पर्वतीय अंचल अपने प्राकृतिक सौन्दर्य में तो अनुपमेय है ही, अनेक जनजातियों के रंग-विरंग सांस्कृतिक वैविध्य का भी अद्भुत आंगन है।
अरुणाचल में हिन्दी का विकास यह प्रमाणित करता है कि यदि कृत्रिम बाहरी विरोध या दबाव न हो तो इस देश की जनता सहज रूप से हिन्दी को ही स्वीकार करेगी, अंग्रेजी को नहीं। हिन्दी को खतरा हिन्दी वालों के दुराग्रह और हठधर्मिता से है, हिन्दी-विरोध से नहीं। ‘आइ डोंट नो हिन्दी’ की अभिजात्यवादी मानसिकता हिन्दी वालों में ही प्रबल है, अहिन्दी भाषियों के लिए तो यह मजबूरी है। भारत में हिन्दी के विकास के लिए किसी भी ताम-झाम वाले प्रचारतंत्र या संगठन की जरूरत नहीं, जरूरत है तो केवल हिन्दी विरोध को रोकने की। 
...यदि इनका समुचित विकास किया जाय तो भविष्य का अरुणाचल सुख समृद्धि, उत्कृष्ट मानवीय गरिमा तथा प्रकृति-मानव सह-सम्वन्ध से युक्त एक ऐसे प्रदेश के रूप में अवतीर्ण होगा जिसको, भारत ही नहीं पूरा विश्व विकास स्तर के प्रतिमान के रूप में पहचान करेगा...

‘जनपथ’ का यह अंक (दिसम्बर-09) जो अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माननीय माता प्रसाद जी की हिन्दी सेवा को समर्पित है, अपने अनूठे विपुल सामग्री व धारदार कलेवर के कारण संग्रहणीय बन गया है।

जनपथ- संपादकः अनन्त कुमार सिंह (मोबाइल- 09431847568) अतिथि सं- नंदकिशोर पाण्डेय(मो.- 09468585258) सेन्ट्रल को-आपरेटिव बैंक, मंगल पाण्डेय पथ, आरा-802301 बिहार. 

शनिवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ, पटना इकाई द्वारा एकल काव्य-पाठ का आयोजन







17 जनवरी 10 को राज्य प्रलेस कार्यालय- केदार भवन, पटना में काव्य-पाठ का अवसर मिला, जिसकी चर्चा दैनिक जागरण, पंजाब केसरी एवं आज आदि समचार पत्रों में की गयी। कवि शहंशाह आलम एवं योगेन्द्र कृष्णा की उपस्थिति तथा कड़ाके की ठंढ. में श्रोताओं की मौजुदगी ने पटना की साहित्यिक गर्मी का बेहतरीन एहसास कराया.....प्रस्तुत है ‘जब मारे जायेंगेशीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ-

.....हम किसी कोमल और
मुलायम स्वप्न देखने के जुर्म में
मारे जायेंगे

जब हम मारे जायेंगे
तब शायद हमारे लिए
सबसे अधिक रोयेगा
वह बच्चा
जो हमारे खतों को
पहुँचाने के एवज में
टाफी पाता था।
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