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शुक्रवार

समकालीन कश्मीरी कविता ‘वसंत’ ..


समकालीन कश्मीरी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गुलाम नबी ‘आतिश’ की कविता किसी भी राजनीतिक, सामाजिक उलझनों और विवादों से अलग दिखती है। इनकी कविताओं में आक्रोश और संघर्ष का एक सादगीपूर्ण इज़हार है साथ ही इनकी विशिष्ट अभिव्यक्ति पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती है। प्रस्तुत है इनकी ‘वसंत’ शीषर्क कविता (अनुवाद: क्षमा कौल) मित्रों के लिए ‘जनशब्द’ पर..

वसंत

प्रेम-हीन बसंत
आज शीत
गंघहीन ठंडक
बहुत
कहाँ आएँगे भला प्रवासी पक्षी
वसंत आया नहीं
अब के इधर

जलसे-जुलूस प्रौपेगंडा
ग्रीष्म के सिंह की भी
साँस उसाँस हो रही है
ऋतुओं का दूल्हा खो गया है
चुनावों की गहमागहमी में।
 

मंगलवार

औरत

‘बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा’ में पिछली पूरी सदी के 140 प्रमुख कवियों की प्रतिनिधि काव्य रचनाओं का समावेश है। ओड़िया की सृजनक्षमता की एक बानगी गिरिबाला महांति की कविता ‘औरत ’ में दिखती है, जो नारी मन के आक्रोश और पीड़ा की अभिव्यक्ति है..

औरत..

लड़की का भला दुख कैसा,
जिसके घर जन्मी, बड़ी हुई, राह चली जीती रही
मरेगी किसके घर- उसे भय कैसा ?
उसे लेकर इतनी खोज-बीन कैसी ?
लड़की का भला दुख कैसा!!

औरत जात की
इतनी आकांक्षा-आशा कैसी ?
अमुक की बेटी, फलाँ की स्त्री,
उसकी माँ बनी है, बनी रहे,
अलग नाम खोजने की जरूरत क्या ?

जन्म लिया, यही काफी है।
इतने भाव-अभाव की बात कैसी ?
औरत बनकर हृदय कँपाएगी-
पूजा लेगी, वर देगी, सब देगी।

वर पाने की आशा फिर कैसी ?
साधारण कामना-वासना ?
यह कैसी बात ?
देवी बनी रहे
सदा तितिक्षा में उद्भाषित-
खड्ग-खप्पर लिए असुर निधन में भी
स्थिर उद्भावित रहे चेहरा।

-क्रोध जैसा क्या ?
अभिशाप कैसा ?
ये घर तेरा नहीं रे माणिक
ये घर तेरा नहीं कि
जो चाहोगी पाओगी,
इच्छा की स्पर्धा में उद्भाषित होगी।

तू किसी वन की नहीं
बगिया की है-
बोगनविला या कामिनी कुछ है
जिसकी फुनगी जैसी छेद है
वैसी ही बनी रह,
मन जरज़ी डाल फैलाए
यहाँ चलेगा नहीं रे माणिक !
जैसा कहा जाय खिलना-
लाल खिलना या श्वेत या नारंगी
यह चिन्ता तुझे करने देगा कौन ?
जीने दिया जा रहा
वह क्या यथेष्ट नहीं रे माणिक ?
- फिर तू अपनी खुशी में
देखना सपने, कैसी स्पर्धा।
मामूली औरत!
मसल दें तो मिट जाएगी !!
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