राजस्थान की साहित्यिक परंपरा में ‘एक और अन्तरीप’ (संपादक- डा. अजय अनुरागी एवं डा. रजनीश संपर्क- 1.न्यू कालोनी, झोटवाड़ा, पंखा, जयपुर- 302012. राज., मोबाइल- 09468791896) का लंबे अंतराल के बाद साहित्य जगत में सुखद व साथर्क हस्तक्षेप हुआ। पत्रिका के प्रधान संपादक प्रेमकृष्ण शर्मा का मानना है कि लधु पत्रिका निकालना या साहित्य रचना करना कोई विलासिता नहीं है, बल्कि अपने रक्त से उस हथियार को निर्माण करना है जो मानव-मुक्ति की लड़ाई में कारगर होकर मानव को शोषण चक्र से मुक्त करेगा। ‘एक और अन्तरीप’ उन्हीं लोगों के साथ है जो मानव मुक्ति के संग्राम में सक्रिय रहे हैं...। अंक में ‘जटिल समय के सहज कविः गोविन्द माथुर’ शीर्षक से संपादक अजय अनुरागी ने कवि गोविन्द माथुर के कविता कर्म का सहृदयता से मूल्यांकण किया है, उनका मानना है कि गोविन्द माथुर की कविताएँ दुरूहताओं और भयावहताओं से परे है। इन्हें पढ़ने के लिए अतिरिक्त तैयारी या विशेष मानसिक योग्यता की जरूरत नही है। ये कविताएँ हलचल रहित शालीन शैली में लिखी गई है। गोविन्द माथुर की कविताओं की गंभीरता व समय की विद्रुपता पर व्यंग्य को मुक्तस़र में देखें-
कौन पूछता है कवियों को /अच्छे पद पर हों तो बात और है।
एक और बानगी
‘हम उन्हें कवि नहीं मानते / क्योंकि वे हमारे गुट में नहीं है।’
गोविन्द माथुर युवा कवियों के आचरण को भी गहराई में जाकर झकझोरते हैं -
युवा कवि होने के लिए/लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए/सुविधा भोगते हुए भी/हमेशा असन्तुष्ट और नाराज दिखते रहना चाहिए/हर समय होठों पर/टिकाए रखना चाहिए किंग साइज सिगरेट/हर शाम शराब पीते हुए/अपने वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए।
गोविन्द माथुर की कविताएँ अपने कथ्य व शिल्प की जहजता के साथ पाठकों को उद्वेलित करती हैं। अंक में वरिष्ठ साहित्यकार हेतु भारद्वज से डा. नरेन्द्र इष्टवाल से बातचीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इधर साहित्य में चले विभिन्न विमर्शों यथा- स्त्री, दलित जैसे मुद्दों पर हेतु भारद्वाज ने खुल कर विचार व्यक्त किए हैं। राजेन्द्र यादव के स्टैण्ड को व्यख्यायित करते हुए वे कहते हैं - ‘राजेन्द्र यादव की दिक्कत यह है कि वे गंभीर बातों के कारण चर्चा में रहना नहीं चाहते बल्कि हल्की बातों को लेकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते हैं। उन्होंने प्रयास यही किया कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व के लिए इस्तमाल करें और उन्होंने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए। उन्होंने स्त्री और दलित को पूरे समाज से अलग करके देखा। उसका नतीजा यह हुआ कि दलित विमर्श उनकी साहित्यिक राजनीति का हिस्सा बन गया और स्त्री विमर्श उनका व्यक्तिगत मामला।’ अंक में कवि शताब्दी के अंतर्गत फैज अहमद फैज की जन्मशती वर्ष पर रामनिहाल गुंजन का आलेख - जब तख्त गिराये जाएँगे,जब ताज उछाले जायेंगे’ रोचकता से पूर्ण है। चार कहानियाँ सहित कविता की एक मुकम्मल दुनिया अंक की सार्थकाता पर मुहर लगाती है। विमर्श में डा. रंजना जायसवाल का आलेख ‘सैक्स का पाखण्ड’ कई मिथकों को खारिज करती है। रंजना का मानना है कि -सेक्स शिक्षा इसलिए जरूरी है कि सेक्स के मनोविज्ञानिक पहलू को भी समझा जा सके वरना सेक्स का सेंसेक्स कभी भी इतना गिर सकता है कि स्त्री-पुरुष का स्वभाविक प्रेम खत्म हो जाएगा। ‘एक और अन्तरीप’ का सिलसिला आगे भी चलता रहे ऐसी सुखद कामना की जाय।
कौन पूछता है कवियों को /अच्छे पद पर हों तो बात और है।
एक और बानगी
‘हम उन्हें कवि नहीं मानते / क्योंकि वे हमारे गुट में नहीं है।’
गोविन्द माथुर युवा कवियों के आचरण को भी गहराई में जाकर झकझोरते हैं -
युवा कवि होने के लिए/लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए/सुविधा भोगते हुए भी/हमेशा असन्तुष्ट और नाराज दिखते रहना चाहिए/हर समय होठों पर/टिकाए रखना चाहिए किंग साइज सिगरेट/हर शाम शराब पीते हुए/अपने वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए।
गोविन्द माथुर की कविताएँ अपने कथ्य व शिल्प की जहजता के साथ पाठकों को उद्वेलित करती हैं। अंक में वरिष्ठ साहित्यकार हेतु भारद्वज से डा. नरेन्द्र इष्टवाल से बातचीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इधर साहित्य में चले विभिन्न विमर्शों यथा- स्त्री, दलित जैसे मुद्दों पर हेतु भारद्वाज ने खुल कर विचार व्यक्त किए हैं। राजेन्द्र यादव के स्टैण्ड को व्यख्यायित करते हुए वे कहते हैं - ‘राजेन्द्र यादव की दिक्कत यह है कि वे गंभीर बातों के कारण चर्चा में रहना नहीं चाहते बल्कि हल्की बातों को लेकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते हैं। उन्होंने प्रयास यही किया कि वे ‘हंस’ को अपने नेतृत्व के लिए इस्तमाल करें और उन्होंने स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के झण्डे बुलन्द किए। उन्होंने स्त्री और दलित को पूरे समाज से अलग करके देखा। उसका नतीजा यह हुआ कि दलित विमर्श उनकी साहित्यिक राजनीति का हिस्सा बन गया और स्त्री विमर्श उनका व्यक्तिगत मामला।’ अंक में कवि शताब्दी के अंतर्गत फैज अहमद फैज की जन्मशती वर्ष पर रामनिहाल गुंजन का आलेख - जब तख्त गिराये जाएँगे,जब ताज उछाले जायेंगे’ रोचकता से पूर्ण है। चार कहानियाँ सहित कविता की एक मुकम्मल दुनिया अंक की सार्थकाता पर मुहर लगाती है। विमर्श में डा. रंजना जायसवाल का आलेख ‘सैक्स का पाखण्ड’ कई मिथकों को खारिज करती है। रंजना का मानना है कि -सेक्स शिक्षा इसलिए जरूरी है कि सेक्स के मनोविज्ञानिक पहलू को भी समझा जा सके वरना सेक्स का सेंसेक्स कभी भी इतना गिर सकता है कि स्त्री-पुरुष का स्वभाविक प्रेम खत्म हो जाएगा। ‘एक और अन्तरीप’ का सिलसिला आगे भी चलता रहे ऐसी सुखद कामना की जाय।
1 टिप्पणी:
Bahut hi Achha laga , apko aage k liye dher sari shubhkamnaye..mujhe FB se aapke is blog ki jankari mili...
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