कमला प्रसाद के साथ अरविन्द श्रीवास्तव |
बाजार में क्या नहीं है? बाजार में सब है, धन है, कीर्ति, धर्म-कर्म, अर्थ- काम, मोक्ष सब है। ऐसे में साहित्य क्या कर सकता है। निश्चय ही संवेदना की रक्षा विखण्डन में से संश्लेषणात्मक विचारों और भावों के नये रचनात्मक रूपाकारों को मानवीय गरिमा प्रदान करना उसका लक्ष्य रहा है। इसी उद्देश की प्रतिबद्धता उसे लाभ-लोभ से बाहर रखने का दबाव देती थी। रचनाकार को विपक्ष में होने को मजबूर करती थी। मार्क्स के शब्दों में कहें ‘पूंजीवाद युग में साहित्य को साहित्य मात्र बने रहने और कला को कला बने रहने के लिए पूंजीवाद का विरोध करना पड़ता है।’ मार्क्स ने सौन्दर्यशास्त्र पर कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी पर व्यक्ति, समाज, जीवन, सृष्टि और प्रकृति के सार्वभौमिक स्वरूप पर विचार करते हुए इस अपरिहार्य मानवीय कर्म की व्याख्या की है। उन्होंने लेखकों को आगाह किया है कि वे रचनाकर्म को लोभ का साधन न बनाएं। यह काम जिन्दा रहने की जरूरतों के लिए नहीं है। साहित्य कला में मूलतः रचनाकार का इंद्रियबोध-भावबोध व्यक्त होता है जिसमें मनुष्य स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। इन्द्रियों को निर्बन्ध बना सके, विचारों का मानवीयकरण-समाजीकरण हो सके और मनुष्यता के दायरे में कृत्रिम रूप से निर्मित विभेदों की समाप्ति हो सके। साहित्य कला का मूल प्रायोजन उदात्त और सुसंस्कृत समाज की रचना है। मनुष्य को अपनी मनुष्यता इन्हीं रूपाकारों में अर्जित कर विकसित करनी पड़ती है। - बिहार प्रलेस संवाद
1 टिप्पणी:
शुक्रिया! कमला जी और मार्क्स के शब्द साझा करने के लिए.
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