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रविवार

आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है...... वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीतः-

ज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है......
वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीतः-

अरविन्द श्रीवास्तव- भूमंडलीयकरण और बाजारवाद में आप युवा कवियों से क्या-क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
अरुण कमल- मुझे कभी किसी कवि से कोई अपेक्षा नहीं होती । कवि जो भी कहता है मैं उसे सुनता हूँ। अगर उसकी धुन मेरी धुन से , मेरे दिल की धड.कन से , मिल गयी तो उसे बार-बार पढ.ता हूँ।दूसरी बात यह कि युवा कवि कहने से आजकल प्रायः किसी ‘कमतर’ या ‘विकासशील’ कवि का बोध होता है जो गलत है। दुनिया के अनेक महान कवियों न अपनी श्रेष्ठतम रचनाएँ तब रचीं जब वे युवा
थे। इसलिए हिन्दी के युवा कवि जो लिख रहे हैं मैं उसे हृदयंगम करने की योग्यता पा सकूँ, मेरा प्रयत्न यही होगा। अपेक्षा कवि से नहीें पाठक से है।
अरविन्द श्रीवास्तवः आप युवा कवियों के प्रेरणास्रोत रहे हैं अपने लेखन के आरम्भिक दिनों आपने किन से और कहाँ से प्रेरणा ग्रहण की ?
अरुण कमलः मैं कभी किसी का प्रेरणास्रोत नहीं रहा। अपने पहले के कवियों एवं बाद के कवियों - दोनों तरफ से मैने प्रायः प्रहार झेले हैं, जिसका मुझे कोई गम नहीं है। मेरे प्रेरणास्रोत शुरू में धूमिल भी थे, फिर नागार्जुन-त्रिलोचन और निराला। मैं विस्तार से इस बारे में पहले कह चुका हूँ जो मेरी पुस्तक - ‘कथोपकथन’ में संकलित हैं। अभी मेरे प्रिय कवि निराला तो है हीं तुलसी, कबीर, गालिब, नजीर और शेक्सपीयर हैं। और सबसे प्रिय ग्रंथ ‘महाभारत’।
अरविन्द श्रीवास्तवः ‘अपनी केवल धार’ सहित आपके चारों कविता संग्रह में आपका सर्वाेतम काव्य कर्म किसे माना जाएगा ?
अरुण कमलः मैंने जो कुछ लिखा वो उत्तम भी नहीं है। अधिक से अधिक वह अधम कोटि का है। मैं अच्छा लिखना चाहता हूँ लेकिन वह मेरे वस में नहीं है। देखें क्या होता है।
अरविन्द श्रीवास्तव- इधर के पन्द्रह-बीस वर्षों में विशेषकर सोवियत संध के विघटन के पश्चात समकालीन कविता लेखन में अगर कुछ विचारधारात्मक बदलाव आया है, तो उसे आप किस रूप में लेते हैं ?
अरुण कमल-  आज कविता , साहित्य मात्र तथा कला और यहाँ तक कि राजनीति मेें भी राजनीति कम हुई है । माक्र्स के अनुसार राजनीति का अर्थ है वर्ग- संघर्ष   और सत्ता पर अधिकार के लिए दो वर्गों के बीच का संघर्ष । वर्ग-संधर्ष का स्थान अब जाति, क्षेत्र, लिंग, सम्प्रदाय आदि ने ले लिया है जो पूँजीवाद प्रेरित उत्तर आधुनिक दर्शन तथा व्यवहार का केन्द्र है । समाज में अनेक अन्तर्विरोध या अंतःसंघर्ष होते हैंं, किसी को झुठाया नहीं जा सकता ।  लेकिन एक मुख्य अंतर्विरोध होता है जो मेरी समझ से आर्थिक है और इसलिए वर्ग-आधारित। आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड.ी है। मनुष्य को नष्ट करने वाले पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध कम पड.ा है।  इसका असर यह भी हुआ है कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक प्रश्न पर यहाँ तक कि शुद्ध कलागत प्रश्नों पर भी, अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है। अगर आप सर्वेक्षण करके आज के लेखकों से पूछें कि उन्हें कौन से कवि पसंद हैं तो वे प्रायः खामोश रहेंगे । आप पिटते रहें पर वे तमाशा  देखते रहेंगे । मुझे ब्रेख्त की कविता याद आती है जिसमें भाषण के अंत में वह आदमी मजमेंं में एक पुर्जा घुमाता है कि आप दस्तखत कर दो, लेकिन भीड. छँट जाती है, कोई दस्तखत नहीं करता । पुर्जे पर लिखा था ः ‘दो जोड. दो बराबर चार’। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो निडर होकर यह भी कह सकें कि उन्हें उड.हुल  का फूल सुंदर लगता है।  
अरविन्द श्रीवास्तव समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में कविता समाज से कटती जा रही है आलोचकों ने ‘कविता के बुरे दिन’ की धोषणा कर दी है, जब कि बडी आबादी कविता से उम्मीद लगाये हुई है? इस कसौटी पर नये कवि कहाँ खडे. उतर रहे हैं ?
अरुण कमल ः मैं नहीं समझता कि कविता कटती जा रही है। बल्कि समाज ही कविता से कटता जा रहा है। समाज को ऐसा बनाया जा रहा है, बनाया गया है कि वह सभी  विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट कर केवल ‘आइ पी एल’ की शरण में चला जाए। जो भी रचना या शक्ति मुनाफे का विरोध करेगी उसे बाहर कर दिया जाएगा। अगर करोड.ों लोग भूखे सो रहे हैं तो यह मत कहिए कि अन्न उनसे कट गया है, कहिए कि पूँजीवादी सरकार और व्यवस्था ने उनसे अन्न छीन लिया है। यही बात कविता और कला और विज्ञान के साथ भी है।
अरविन्द श्रीवास्तवः  साहित्यिक जगत खेमेबाजियों से ग्रसित होते जा रहे हंै क्या इससे ‘नवलेखन’ प्रभावित होते नहीं दिख रहा ?
अरुण कमल ः मुझे सबसे ज्यादा कोफ्त ऐसी ही बातों से होती है। साहित्य में, जैसे कि दर्शन और विज्ञान में, मूल्यों के बीच संधर्ष होता हैै। यह गुटबाजी नहीं हैै। यह खेमेबाजी  नहीं हैै। मान लीजिए मुझे निराला प्रिय हैै। रामविलास शर्मा को भी। नामवर सिंह को ै। विश्वनाथ त्रिपाठी, नंद किशोर नवल, खगेन्द्र ठाकुर जी एवं परमानन्द जी को भी। शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन को भीै। तो क्या इसे गुटबाजी कहेंगे ? दूसरी तरफ आप लाख माथा पटकेंगे, फिर भी न तो मैं फलाँ जी को न अमुक जी को अच्छा कवि मानूँगा।  आप कहेंगे यह तो जातिवाद है, यह तो विचार धारावाद है, यह तो गुटबाजी हैै। कहते रहिए लेकिन ‘तजिए ताहि कोटि बैरी सम.......जाके प्रिय न राम बैदेहि। साहित्य में खेमेबाजी नहीं होती। एक जैसा सोचने, पसंद करने, विश्वास करने वाले लोग एक साथ होते हैं, फिर भी लड.ते झगड.ते रहते हैं - यही होता।
अरविन्द श्रीवास्तवः अभी युवा कवियों की भावधारा से आप कितना आशान्वित हैं ? कौन से युवा कवि आपको आकर्षित कर रहे हैंं ?
अरुण कमलः मैं शुरू में इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ। आपका पहला प्रश्न इस बारे में ही तो है। जबतक मैं किसी कविता को बार-बार न पढूँ तबतक प्रभावित नहीं होता। बहुत से प्रतिभाशाली कवि हैं उन्हें ‘काँटों की बाड.ी’ में अपना रास्ता ढूंढने दीजिए जो सबसे ज्यादा लहूलुहान होकर आएगा वही मेरा प्रिय होगा; जो ‘कागद की पुडि.या’  भर होगा वह गल जाएगा।
 अरविन्द श्रीवास्तवः इधर नई कविताओं में नये-नये प्रयोग हो रहे हैं, इसे रंगमंच पर खेला जा रहा है, पेंटिंग, पाठ और संगीत के माध्यम से आमजन तक पहुँचाया जा रहा है इसे आप किस रूप में लेते हैं? क्या इससे मूल कविता की गरिमा का अवमूल्यन तो नहीं हो रहा है  ?
अरुण कमलः मूल कविता अपनी जगह अक्षत होती है। बाकी उसके अनेक पाठ या रूपांतर होते हैं; जितने पाठक उतने पाठ - ठीक ही तो है फिर भी वह मूल पात्र ज्यों का त्यों दूध से भरा होता है, सबके छकने के बाद भी।
अरविन्द श्रीवास्तवः आज युवा कवियों द्वारा कविताएँ लिखी जा रही है उसे ‘उत्कृष्ठता की विश्व मानक कसौटी’ पर कितना खड.ा पाते हैं ? हिन्दी कविताओं का अनुवाद विश्व की अन्य भाषाओं मे हो, इस दिशा में हो रहे कार्य से आप कितना संतुष्ट दिखते हैं ?
अरुण कमलः अभी तक तो निराला के भी अनुवाद नहीं हुए। मुझको नहीं मालूम कि प्रसाद, पंत, महादेवी या मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर का ही कितना अंग्रेजी में भी अनुदित है, दूसरी भाषाओं को यदि छोड. भी दें। हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेजी विभागों का पहला काम यही होना चाहिए तथा अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहिए। हर महान कविता पहले अपनी भाषा में महान होती है।
अरविन्द श्रीवास्तव ः. पुरस्कार पाने की ललक नये कवियों में दिखने लगी है, इससे उसकी रचनाधर्मिता प्रभावित होती है, वे शार्ट-कार्ट रास्ता अपनाने लगे हैं। किसी कवि की कविता का उचित मूल्यांकन हो इस दिशा में किस पहल की जरूरत है ?
अरुण कमल ः पुरस्कार -पद -सम्मान, या निरन्तर विरोध, या उपेक्षा- ये सब इस कविता के भव के भाग हैं। जो सच्चा कवि है उसके लिए पुरस्कार और प्रहार दोनों बराबर हैं। जो पिटा नहीं, जो लगातार पिटा नहीं वह कवि कैसा?, जिसका अर्थी - जुलूस जितना ज्यादा निकले उसकी आयु उतनी ही ज्यादा होगी। कोई मूल्यांकन अंतिम नहीं होता।
अरविन्द श्रीवास्तवः गांव-कस्बे एवं छोटे शहरो के कवियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए राजधानियों के चक्कर लगाने पड.ते है ? वे राष्ट्रीय क्षितिज पर उपेक्षित महसूसते हैं ?
अरुण कमलः जो पहचान बनाने के लिए व्यग्र हंंैंं वह कवि नहीं हैं जो कवि होगा वो केवल कविता रचेगा।
अरविन्द श्रीवास्तवः युवा कवियों की कविताएँ ब्लॉग पर आ रही हैं। डा. नामवर सिंह और विभूतिनारायण राय आदि ने ब्लॉग को सहित्य का हिस्सा माना है। युवा ब्लॉगरों से आपकी अपेक्षाएँ ?
अरूण कमलः मैं साधारण आदमी हूँ और कम्प्यूटर का ज्ञान मुझको नहींे है, दुनिया का सबसे सस्ता माध्यम लेखन है यानी कागज और कलम। मेरी दुनिया कागज कलम तक ही सीमित है।
अरविन्द श्रीवास्तवः  केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी आदि की परम्परा में आगे आप किन युवा कवियों को देखते हैंं ?
अरुण कमलः आपने जिन कवियों की सूची देकर परम्परा बनाने का प्रयत्न किया है उनमें से कम से कम एक मेरा नाम हटा दें । मैं उस पंक्ति का, उस पद का अधिकारी नहीं हूँ। इसे विनम्रता नहीं वास्तविकता माना जाए। दूसरी बात यह कि ये सारे कवि अभी भी सौभाग्य से सक्रिय हैं। परम्परा पीछे से बनती है। जो लोग बाद मेंं लिख रहे हैं उन्हें अभी थोड.ा लिखने दीजिए। अंधड.-तुफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी।
अरविन्द श्रीवास्तवः आपने साहित्य में कई मुकाम हासिल किये, कुछ ऐसा लगता है जो आप करना चाहते थे वह नहीं कर पाए ?
अरुण कमलः हाँ, जैसा मैनें अभी कहा मैं अभी भी बस लिखने की कोशिश में हूँ। जो चाहा वह नहीं हुआ।
अरविन्द श्रीवास्तवः गत दिनों विष्णु खरे साहब ने कुछ कवियों की कविताओं पर  प्रश्न चिन्ह लगाया था, सवाल खडे. किये थे.....
अरुण कमलः एक पंक्ति है मीर की- ‘कुफ्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक के लिए’। और कबीर की पंक्ति है- ‘श्वान रूप संसार है भूकन दे झकमार’। मुझे ‘मीर’ और ‘कबीर’ प्रिय हैं मैं उन्ही की आवाज के पर्दे में अपना काम करता हूँ।

       -कला कुटीर, अशेष मार्ग
         मधेपुरा-852 113. बिहार
                                                  मो.- 09431080862.

परिकथा- मई-जून, १० में प्रकाशित

बुधवार

शहंशाह आलम का ‘वितान’




मकालीन कविता के सशक्त कवि शहंशाह आलम की नयी कृति ‘वितान’ उनके काव्य फलक का वितान है, पगडंडियों से महानगर की यात्रा का महाभियान है। यह पुस्तक विपुल संभावनाओं का सामुच्य है, पुस्तक की कविताओं में कवि की  अदम्य जिजीविषा, विचारोत्तेजक भावधारा, नवीन शिल्प एवं कला  सुदृढ़ रूप में दिखती है। वैचारिकता और सम्वेदनाओं से बुनी गयी वितान की तमान कविताएँ समकालीन काव्य परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराती है। डा. रमाकांत शर्मा के अनुसार ‘डिप्रेशन के इस महादौर में शहंशाह आलम की कविताएं विश्वास को टूटने नहीं देती, बल्कि खूबसूरत दुनिया का ख़्वाब बनाए रखती है।’ बतौर बानगी प्रस्तुत है वितान से ‘स्त्रियां’ शीर्षक कविता  -

स्त्रियां हैं इसलिए
फूटता है हरा रंग वृक्षों से
उड़ रहे सुग्गे से

स्त्रियां हैं इसलिए
शब्द हैं वाक्य हैं छन्द हैं
विधियां हैं सिद्धियां हैं
भाद्रपद हैं चैत्र है

इसलिए अचरज है
अंकुर हैं फूटने को आतुर।

प्रकाशकः समीक्षा प्रकाशन
डा. राजीव कुमार
मोबाइल- 09471884999/09334279957.

सोमवार

‘देशज’ के देश में....




'देशज' पत्रिका का यह अंक शाहाबाद प्रक्षेत्र पर केन्द्रित है। शाहाबाद के अन्तर्गत चार जिले हैं जिनमें भोजपुर (आरा) बक्सर , रोहतास और कैमूर आते हैं, इन चार जिलों के रचनाकार वर्तमान समय में राष्ट्रीय फलक पर बेहद सक्रिय हैं मसलन् अरुण कमल, बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय, विमल कुमार, कुमार मुकुल, हरे प्रकाश उपाध्याय, सुधीर सुमन, राम निहाल गुंजन, जनार्दन मिश्र, प्रेम किरण आदि कई नाम हैं जो ‘देशज’ के इस अंक में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर अंक की महत्ता सार्थक कर रहे हैं। अंक में प्रकाशित तमाम कविताएँ समय के खुरदरे चहरे को उजागर करती है, प्रेम और प्रतिरोध का समवेत स्वर प्रकाशित कविताओं में दिख रहा है। कोमल व कठोर अनुभूतियों का यह शाहाबादी एलबम काव्य परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराता है। संवेदनाओं और वैचारिकता के द्वंद से बुनी गयी गायत्री सहाय, डा. आर. के. दूबे, मीरा श्रीवास्तव, संतोष श्रेयांस, जगतनन्दन सहाय, ओमप्रकाश मिश्र आदि की कविताएँ भी देशज को महत्वपूर्ण दस्तावेज की शक्ल देता है। संपादक अरुण शीतांश ‘अपनी धार’ के माध्यम से ‘देशज’ का प्रेम पाठकों में बांटते हैं हौसले और एक नए उम्मीद के साथ । देखें, अंक में प्रकाशित कविताओं की कुछ बानगी-
इस बाजार में 
मेरे पिता का खून 
और पसीना मिला हुआ है
मैं इस मकान को बेच नहीं सकता
क्योंकि मैं यह देख नहीं सकता 
इस बाजार में 
कोई खरीद ले
मेरे पिता का पसीना
और खून भी!
इस बाजार में / विमल कुमार

पहाड़ों के पीछे से 
आई बाध की हुंकार ऽ ऽ ऽ 
मैं काँप गया
डर मत
कहा रामदाना बेचने वाले बूढ़े ने
पहाड़ों के पीछे बाघ-बाघिन कर रहे हैं प्यार ।
मेरा डर / बद्री नारायण

देशज
संपादक: अरुण शीतांश
मणि भवन, संकट मोचन नगर,
आरा-802301. बिहार
मोबाइल - 09431685589.

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