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सोमवार

शहंशाह आलम की कविता ‘अभिनेत्री’



क अभिनेत्री प्रकट होती है
एकदम बम्बइया
एकदम बाजारू
कई-कई मूल्यवृद्धि वाली
इस व्यवस्था को 
इस जनतंत्र को 
नकारती दुत्कारती फटकारती

एक अभिनेत्री घुसती है
हमारी आंखों की नींद के सपने में
बिना किसी खींचातानी के
जैसे कोई चिड़िया घुस आती है
एकदम आतुर
हमारे कमरे में

एक अभिनेत्री तब भी कर रही होती है
अठखेलियाँ दृश्यपटल पर
सौ बार जलती और बुझती है
जब किया जा रहा होता है
नाभिकीय करार दो सरकारों के बीच 
जब हमारे दुश्मन खोद रहे होते है कब्र
जब पिता के लिए ला रहे होते हैं 
हम दवाइयाँ पैसे बचा-बचाकर

एक अभिनेत्री अपना ऐतिहासिक 
नृत्य दिखलाती है तब भी
जब हम मना रहे होते हैं 
अपनी नाराज़ प्रेमिका को

तब भी जब हम मार भगा रहे होते हैं 
पेड़ काटने वालों को
तब भी जब हम इकट्ठा कर रहे होते है
रेशम का कीड़ा
आग पानी और हवा
और हमारे-तुम्हारे प्रेमपत्र ....

एक अभिनेत्री प्रेमालाप कर रही होती है
जब तुम-हम रोटी के लिए लड़ रहे होते हैं
अपनी मुक्ति का सपना देख रहे होते हैं
अथवा तेज़ हथियार ढूँढ रहे होते हैं
अपने अमात्य-महामात्य को 
मार भगाने के लिए !

शुक्रवार

समकालीन कश्मीरी कविता ‘वसंत’ ..


समकालीन कश्मीरी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गुलाम नबी ‘आतिश’ की कविता किसी भी राजनीतिक, सामाजिक उलझनों और विवादों से अलग दिखती है। इनकी कविताओं में आक्रोश और संघर्ष का एक सादगीपूर्ण इज़हार है साथ ही इनकी विशिष्ट अभिव्यक्ति पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती है। प्रस्तुत है इनकी ‘वसंत’ शीषर्क कविता (अनुवाद: क्षमा कौल) मित्रों के लिए ‘जनशब्द’ पर..

वसंत

प्रेम-हीन बसंत
आज शीत
गंघहीन ठंडक
बहुत
कहाँ आएँगे भला प्रवासी पक्षी
वसंत आया नहीं
अब के इधर

जलसे-जुलूस प्रौपेगंडा
ग्रीष्म के सिंह की भी
साँस उसाँस हो रही है
ऋतुओं का दूल्हा खो गया है
चुनावों की गहमागहमी में।
 

मंगलवार

औरत

‘बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा’ में पिछली पूरी सदी के 140 प्रमुख कवियों की प्रतिनिधि काव्य रचनाओं का समावेश है। ओड़िया की सृजनक्षमता की एक बानगी गिरिबाला महांति की कविता ‘औरत ’ में दिखती है, जो नारी मन के आक्रोश और पीड़ा की अभिव्यक्ति है..

औरत..

लड़की का भला दुख कैसा,
जिसके घर जन्मी, बड़ी हुई, राह चली जीती रही
मरेगी किसके घर- उसे भय कैसा ?
उसे लेकर इतनी खोज-बीन कैसी ?
लड़की का भला दुख कैसा!!

औरत जात की
इतनी आकांक्षा-आशा कैसी ?
अमुक की बेटी, फलाँ की स्त्री,
उसकी माँ बनी है, बनी रहे,
अलग नाम खोजने की जरूरत क्या ?

जन्म लिया, यही काफी है।
इतने भाव-अभाव की बात कैसी ?
औरत बनकर हृदय कँपाएगी-
पूजा लेगी, वर देगी, सब देगी।

वर पाने की आशा फिर कैसी ?
साधारण कामना-वासना ?
यह कैसी बात ?
देवी बनी रहे
सदा तितिक्षा में उद्भाषित-
खड्ग-खप्पर लिए असुर निधन में भी
स्थिर उद्भावित रहे चेहरा।

-क्रोध जैसा क्या ?
अभिशाप कैसा ?
ये घर तेरा नहीं रे माणिक
ये घर तेरा नहीं कि
जो चाहोगी पाओगी,
इच्छा की स्पर्धा में उद्भाषित होगी।

तू किसी वन की नहीं
बगिया की है-
बोगनविला या कामिनी कुछ है
जिसकी फुनगी जैसी छेद है
वैसी ही बनी रह,
मन जरज़ी डाल फैलाए
यहाँ चलेगा नहीं रे माणिक !
जैसा कहा जाय खिलना-
लाल खिलना या श्वेत या नारंगी
यह चिन्ता तुझे करने देगा कौन ?
जीने दिया जा रहा
वह क्या यथेष्ट नहीं रे माणिक ?
- फिर तू अपनी खुशी में
देखना सपने, कैसी स्पर्धा।
मामूली औरत!
मसल दें तो मिट जाएगी !!

सोमवार

रमेश नीलकमल की याद में..

हरिशंकर श्रीवास्तव ’शलभ’ के साथ रमेश नीलकमल..


                                              कवि, कथाकार और ’शब्द कारखाना’ पत्रिका के सिद्ध संपादक रमेश नीलकमल के निधन से मर्माहत हूँ..। बिहार में समकालीन लेखन के प्रति उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कई कवि व कथाकारों को पहचान दी। उनकी पत्रिका ’शब्द कारखाना’ के 27 वें अंक, जो जर्मन साहित्य पर केन्द्रित था का संयोजन करने का अवसर मुझे मिला था। ग्युंटर ग्रास पर मेरे एक आलेख की उन्होंने बेहद सराहना की थी, जब अगले वर्ष ग्रास को साहित्य का नावेल पुरस्कार मिला था..।
 रमेश नीलकमल हिन्दी, अंग्रेजी, मगही व भोजपुरी में अपनी रचनात्मक्ता की छाप छोड़ चुके हैं। उनका जन्म- 21 नवम्बर 1937 को बिहार, पटना, मोकामा के 'रामपुर डुमरा' गाँव में हुआ था। उन्होंने कोलकाता में बी.ए.,  फिर पटना से बी.एल. एवं प्रयाग से साहित्य-विशारद की थी तथा सेवानिवृत्त 'कारखाना लेखा अधिकारी' पद से की। उनकी 10 काव्य कृति, 4 कहानी संग्रह, 5 समीक्षा, 2 रम्य-रचना, 3 शोध-लघुशोध, 1 भोजपुरी-विविधा तथा1 बाल-साहित्य,  लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित हुई तथा 10 से अधिक पुस्तकों का उन्होंने  संपादन भी किया था। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकों में - बोल जमूरे (काव्य-नाटक),  अपने ही खिलाफ, कवियों पर कविता, राग-रंग-मकरंद (हिंदीतर),    कविता का क ख ग,   एक और महाभारत,   नया घासीराम, वैश्यों का उद्भव और विकास, राजकमल चैधरी: सृजन के आयाम, कोसी के आर-पार (संपादन), समय के हस्ताक्षर आदि प्रमुख हैं..। 'शब्द-कारखाना'  के साथ ही 'वैश्यवसुधा' त्रैमासिकी का भी वे संपादन करते थे साथ ही वे प्रगतिशील सृजनशीलता के नये आयाम की तलाश भी  ताउम्र करते रहे...।
    उनकी बहुचर्चित कालजयी कृति ’आग और लाठी’ के लिए उन्हें 1985 में प्रतिष्ठित मैथिली शरण गुप्त राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी साहित्यिक कृतियों पर मगध विश्वविधालय, भागलपुर विवि. एवं गौहाटी विवि. आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं में शोध व अध्ययन कार्य हो रहे हैं...।
    उनकी सहजता व आत्मीयता की कई बानगी मेरे हृदय में कायम रहेगी..। मधेपुरा/ सहरसा   स्थित मेरे आवास पर उनका पदार्पण कई बार हुआ था, दिल्ली, हरिद्वार व ऋषिकेश का पर्यटन भी हमने साथ-साथ किया तथा 17 सितं. 2000 को दिल्ली में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी हम कई दिनों तक साथ रहे। जमालपुर/ मुंगेर में भी उनका सानिध्य मिला। लगभग  दस वर्ष पूर्व लाल किला के प्राचीर में पिता जी हरिशंकर श्रीवास्तव ’शलभ’ के साथ ली गई उनकी तस्वीर, उनकी स्मृति को समर्पित है..।
- अरविन्द श्रीवास्तव

शनिवार

पूर्णिया में सतीनाथ भादुड़ी के साहित्य पर विमर्श..




-सौ बांग्ला लेखकों में तीस प्रतिशत बिहार के लेखक हैं..
-‘ढोढाइ चरित्रमानस’ कोसी अंचल के सामाजिक जीवन का आईना है..

    बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी द्वारा स्थापित पूर्णिया जिला मुख्यालय का ऐतिहासिक पुस्तकालय ‘इंदु भूषण पब्लिक लाईब्रेरी’ में 7 फरवरी को आयोजित साहित्यिक विमर्श में हिन्दी एवं बांग्ला के साहित्यकारों की भागीदारी रही। इस विमर्श में इस पुस्तकालय के सचिव शंभुनाथ गांगुली, मनोज मुखर्जी, तपन बनर्जी, रोमेन चौधरी, आलो राय, विश्वंभर नियोगी, अजय कुमार एवं मधेपुरा से आये कवि अरविन्द श्रीवास्तव मौजूद थे। इस विमर्श का संचालन कथाकार एवं आलोचक अरुण अभिषेक कर रहे थे।
बांग्ला कवि आलो राय ने कहा कि सतीनाथ भादुड़ी ने 1938 में इस लाइब्ररी की स्थापना की थी, उस वक्त से लेकर आजतक की महत्वपूर्ण बांग्ला साहित्य को बतौर धरोहर इस पुस्तकालय में संजोया गया है तथा बांग्ला की समृद्ध साहित्यिक परंपरा को बिहार, विशेषकर पूर्णिया के साहित्यकारों ने विशेष रूप से संवर्द्धित किया है। 
संवाद को आगे बढ़ाते हुए तपन बनर्जी ने गौरवान्वित हो कर कहा कि सौ बांग्ला लेखकों में तीस प्रतिशत बिहार के लेखक हैं। उनमें सतीनाथ भादुड़ी, विभूति भूषण वन्धोपाध्याय, वनफूल, केदारनाथ वन्धोपाध्याय, श्रीमती लिली रे आदि मुख्य हैं । 
मनोज मुखर्जी का मानना था कि यह पूर्णिया शहर पहले कटिहार भूखण्ड से सहरसा कोसी प्रमंडल तक पूरा क्षेत्र पूर्णिया जिलान्तर्गत था। फनीश्वरनाथ रेणु, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन झा द्विज, वफा मलिकपुरी, अनुपलाल मंडल व गंगानाथ सिंह जैसे विद्वान राष्ट्रीय फलक पर चर्चित रहे। 
रोमेन चौधरी ने कहा कि सतीनाथ भादुड़ी की चर्चित रचना ‘जागरी’ रही है। उपन्यास जागरी के लिए उन्हे ‘रवीन्द्र पुरस्कार’ मिला था। इनका उपन्यास ‘ढोढाइ चरित्रमानस’ कोसी अंचल के सामाजिक जीवन का आईना है। इसके अतिरिक्त इनके उपन्यास ‘चित्रगुप्तेर फाईल’, ‘अचिन रागिनी’ ‘दिग्भ्रान्त’ आदि चर्चित हैं। 
विश्वंभर नियोगी ने सतीनाथ भादुड़ी की  परिचिता, रथेर तले, कृष्ण कली, पंक तालिका आदि कहानियों की भी चर्चा की। 
कथाकार अरुण अभिषेक ने कहा कि ‘कर दातार संघ जिन्दाबाद’ नामक कहानी में भादुड़ी जी ने हास्य के माध्यम से मनुष्य के मन की विकृति जो झूठ और बेईमानी से उपजती है, उसे उजागर किये हैं जो आज भी वर्तमान में हम महसूस करते हैं।
     मधेपुरा से आये अरविन्द श्रीवास्तव ने अभिभूत होकर हिन्दी व बांग्ला के संयुक्त साहित्यिक पहल को सार्थक माना तथा पूर्णिया के साहित्यक अवदान को नमन किया। 
धन्यवाद ज्ञापन अजय कुमार ने किया।
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