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गुरुवार

बीकानेरी समाज, संस्कृति और परिवार के बड़े कैनवस का नाम है ‘इस शहर के लोग’ संदर्भ मानिक बच्छावत की नई कृति



पिछले वर्ष 2009 मे ‘पेड़ों का समय’ और अभी-अभी ‘इस शहर के लोग’ ने कविता जगत में मानिक दा की मिल्कियत को पुख्ता किया है। उम्र के इस मुकाम पर ‘जड़’ के प्रति उनका सम्मानपूर्वक स्नेह, प्रेम व उदगार अचानक नहीं फूटा है। फीजी, मारीशस और सुरीनाम सदृश्य देशों में फैले सभी सचेतन नागरिक अपने इतिहास से उतना ही जुड़ाव महसूस कर सकते हैं  जितना मानिक बच्छावत सहित हम। बाजारवाद और महानगरीय भागम भाग में देशज संवेदनाओं को बचाये रखने की जिजीविषा कि जैसे छिपा रहता है गन्ने में रस, मेंहदी में रंग और रेत में असंख्य जलस्रोत, कवि ने बीकानेरी माटी की सोंधी खुश्बू संग्रह की 45 कविताओं में उड़ेल दिया है - लूण जी बाबा, हसीना गूजर, तीजा बाई रोवणगारी, खुदाबक्स फोटोग्राफर, भूरजी छींपा, गपिया गीतांरी, तोलाराम डाकोत, मियां खेलार, जिया रंगारी, नत्थु पहलवान, जेठो जी कोचवान, जेसराज जी की कचैड़ियाँ, हमीदा चुनीगरनी जैसे अनेक पात्र, जो बीकानेर की यादों के साथ कवि के कवित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा बन ताउम्र जुड़े रहने को संकल्पित दिखते हैं। देखें बानगी - कविता ‘मेहतरानी’ -........ मेरी पत्नी आए दिन उसे/ कुछ न कुछ देती है/ कहती/ उसका कर्ज इस जन्म में/ नहीं चुकेगा/ राधारानी भी कहती/ अपना फर्ज निबाहेगी/ जब तक जिएगी/ बाईसा की हवेली पर आएगी। 
गोदना गोदने की कला में माहिर ‘नैणसी गोदारा’ के हुनर का किस तरह बाजारीकरण हुआ है, कवि मर्माहत हो लिखाता है - अब यह पेशा नैणसी से छूटकर/ ब्यूटी पार्लरों और फैशन की दुनिया में/ पहुँच गया/वह हजारों का खेल बन गया/ अब / यह प्राचीन गोदना कला से/ आर्ट आफ टैटूइंग होकर/अपना करिश्मा दिखा रहा है/ ऐसे में अब नैणसी कहाँ होगा ? बीकानेर की महान विरासत में जो साझी संस्कृति रही है उसकी मिसाल ‘पीरदान ठठेरा’ में दिख जाता है - पीरदान/ आधा हिंदू था आधा मुसलमान/वह ठठेरा कहता मैं/ इस बर्तनों की तरह हूँ जिनका/ कोई मजहब नहीं होता। वहाँ ‘हसीना गूजर’ बेरोक-टोक लोगों तक / दूध पहूँचायेगी/ कौमी एकता का गीत गायेगी। यहाँ कवि वर्तमान के जटिलतर रिश्तों के लिए गरिमायम आश्वस्ति प्रदान करता दिखता है। कवि अपने कोमल अनुभूतियों, स्मृतियों तथा बीकानेर के समाज संस्कृति और परिवार को बड़े कैनवस पर सजीवता से पेश कर ‘अपनी माटी’ (बीकानेर) को समर्पित कर उऋण होने का प्रयास किया है। मानिक बच्छावत देश के चर्चित कवि रहे हैं, इनकी कविताएं तमाम स्तरीय पत्रिकाआ में प्रकाशित होते रही है ‘इस शहर के लोग’ साहित्य जगत के लिए एक नायाब तोहफा है।

मानिक बच्छावत
समकालीन सृजन
20, बालमुकुंद मक्कर रोड
कोलकाता- 700 007
मोबाइल - 09830411118.
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मंगलवार

शीतल वाणीः शमशेर बहादुर सिंह स्मृति अंक



ज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर शिल्प में एक अर्थ में जयशंकर प्रसाद के बहुत करीब हैं। तीनों ही जटिल संवेदनाओं के कवि हैं। तीनों की मित्रता भी अनायास नहीं है। तीनों की जटिलता तीन तरह की है। मुक्तिबोध मार्क्सवाद का सिद्धांत-कथन करते हैं। उनकी कविता में पैठ के लिए मार्क्सवाद का अध्ययन आधार बनता है। समाज और जीवन की समझ सहायक बनती है। बहुत बड़ा फलक है वहाँ। निजी चिंताओं को भी वह सामाजिक समस्या के बीच में रख कर पेश करते हैं। इसके विपरीत शमशेर अपने में डूबे हुए । प्रकृति उन्हें अपने अंदर ले जाती है। कवि का ‘मैं’ और उसकी कविता एक हो जाते हैं सब कुछ एक हो जाता है। अतीत की स्मृतियां, अपनी रचना प्रक्रिया, प्रकृति और अपनापन सब एकमएक हो जाते हैं। मुक्तिबोध बाहर जाते हैं, शमशेर अंदर। एक को रोशनी पसंद है दुसरे को अंधेरा। एक में समाज ही समाज, दूसरे में मैं ही मैं।
                                                                                                                                                - इब्बार रब्बी
शमशेर की कविता

धूप कोठरी के आइने में खड़ी

धूप कोठरी के आइने में खड़ी
हँस रही है

पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कुराते 
मौन आँगन में

मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ

एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को 
बहुत नन्हा फूल 
उड़ गई

आज बचपन का  
उदास मा का मुख
याद आता है।

शीतल वाणी
संपादक‘ डा. वीरेन्द्र ‘आज़म’
2 सी/175 पत्रकार लेन, प्रद्युमन नगर,
मल्हीपुर रोड, सहारनपुर, उ.प्र.
मोबाइलः 09412131404.  
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