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सोमवार

एक अवांछित अ-पाठकीय प्रतिक्रिया / प्रसंग विभूति नारायण राय....

अशोक गुप्ता / कथाकार एवं आलोचक
रअसल हिन्दी साहित्य की दुनिया में लोग अपना मत अभिमत स्थितियों की स्वंतंत्र मेरिट पर, यथा समय  व्यक्त नहीं करते बल्कि उसे शातिराना ढंग से खुद का दामन बचाते हुए, किन्ही भी अप्रत्यक्ष  मुद्दे पर हो-हल्ले के  बीच व्यक्त करते हैं जिसमें सही मुद्दा लगभग लोप हो जाता है.
  कालिया जी का विरोध यहाँ उनकी बहुत सी किन्हीं दीगर वज़हों से हो रहा हो सकता है, जो संभवतः सही भी हों लेकिन तब लोग अपने निजी स्वार्थ के कारण चुप रहे, अब विभूति के बहाने जब एक शोर मचा तो सब इस उस समय की कसर एक साथ निकालने लगे. यह केवल एक शामिल बाजे में अपनी आवाज़ मिलाना हुआ. मैं इसे न रचनात्मक मानता हूँ, न साहसिक.।

शनिवार

पटना में फ़ैज अहमद फ़ैज का जन्मशताब्दी समारोह

चित्र में बायें से - अरविन्द श्रीवास्तव, शहंशाह आलम, राजेन्द्र राजन, डा. इम्तियाज अहमद, डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. अली जावेद, शकीलसिद्दिकी, अरुण कमल,कर्मेन्दु शिशिर.....डा. व्रज कुमार पाण्डेय
 बिहार प्रगतिशील लेखक संध के तत्चावधान में माध्यमिक शिक्षक संध, पटना के सभागार में फ़ैज अहमद फ़ैज की जन्मशती समारोह  का आयोजन किया गया । समारोह की अध्यक्षता डा. इम्तियाज अहमद , निदेशक खुदाबख्श आरियंटल उर्दू लाइब्रेरी ,पटना ने की । मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार शकील सिद्दिकी, लखनऊ के साथ-साथ प्रलेस के राष्ट्रीय उपमहासचिव डा. अली जावेद थे कार्यक्रम का संचालन युवा कवि शहंशाह आलम ने किया।
कहा जाता है कि गालिब के बाद उर्दू का सबसे बड़ा लोकप्रिय शायर फैज़ हैं। इतनी लोकप्रियता उन्हें उनकी शायरी के कारण मिली। जुल्म, अन्याय, बर्बरता एवं शोषण के विरूद्ध समर्पित होकर लिखने वाले फ़ैज़ को इस कारण से सितम कम नहीं उठानी पड़ी। जेल जाना पड़ा । फांसी के फंदे उनके लिए पाकिस्तान हुकूमत ने तैयार कराई थी। तब भी समाज और दुनिया को बदलने की लड़ाई वह अपनी कलम और जेहन से लड़ते रहे । तभी तो लिखा -
‘ बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्म-ओ जबाँ की मौत के पहले
बोल, कि सच जिन्दा है अबतक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले।’
फ़ैज ने प्रगतिशील कविता के साथ-साथ प्रगतिशील आन्दोलन को व्यापकत्म अर्थ दिए। फ़ैज के साहित्यिक योगदान को देखते हुए बिहार प्रगतिशील लेखक संध ने फ़ैज़ का जन्मशताब्दी समारोह मनाने का निर्णय लिया ।
इस अवसर पर बिहार प्रलेस के महासचिव राजेन्द्र राजन, चर्चित कवि अरुण कमल, वरिष्ठ आलोचक डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. व्रज कुमार पाण्डेय आदि ने अपने महत्वपूर्ण विचार उपस्थित श्रोताओं के समक्ष रखे। समारोह में कर्मेन्दु शिशिर, डा. संतोष दीक्षित, अनीश अंकुर, डा. रामलोचन सिंह, वद्रीनारायण लाल, डा. विजय प्रकाश, परमानन्द राम एवं अरविन्द श्रीवास्तव आदि की उपस्थिति रही।
‘हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी.....
....सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे।’
-फ़ैज

शुक्रवार

....... तुम ही सो गये दास्ताँ कहते कहते। गज़लकार वसन्त नहीं रहे....


गीत एवं गज़ल के चर्चित हस्ताक्षर - वसन्त (मुरलीगंज) इस दुनिया में अब  नहीं रहे- यह कहते ही जुबान लड़खड़ा जाती है....अपने गज़ल और गीतों से मंच पर छा जाने वाले वसंत इस तरह अचानक लुप्त हो जायेगा, अविश्वसनीय लगता है। कोसी क्षेत्र की पहचान के रूप में वसन्त ने बिहार एवं अन्य प्रान्तो में अपने फन से बेहद शोहरत कमाया, देश की चर्वित पत्रिकाओं ने उनके गीत और गज़ल को ससम्मान प्रकाशित किया। कोसी क्षेत्र से प्रकाशित पहला साप्ताहिक ‘कोसी टाइम्स’ का उन्होंने प्रकाशन एवं संपादन किया।
वरिष्ठ कवि व गीतकार सत्यनारायण (पटना) का मानना है कि - वसन्त की गज़लों में अहसास की तपिश है, एक मासूम-सा मिज़ाज है और वे धड़कते  भी हैं.......।  उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार तथा कौशिकी क्षेत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षय श्री हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’ ने कहा कि वसन्त नवगीत से गज़ल के क्षेत्र में आये थे, यही कारण है कि नवगीत की रागचेतना और उसकी विम्बधर्मिता समग्र रूप में इनकी गज़लों में दिखती है। डा. भूपेन्द्र’ मधेपुरी का मानना है कि वसन्त के गजलों में नवगीत के मुहावरे, उसकी शब्दावली और उनकी आन्तरिक बुनावट बहुत ही आकर्षक है कवि धीर प्रशांत का मानना हे कि बसन्त की गज़लों में उर्जा’ है और अंतरंगता । चर्चित कवि शहंशाह आलम ने वसन्त को कोसी का खिला हुआ एक अलौकिक पुष्प कहा। गजलकार अनिरूद्ध सिन्हा  एव अरविन्द श्रीवास्तव ने अपने अश्रुपूरित नयनों से उन्हें नमन किया।   उनकी चर्चित कृति ‘एक गज़ल बनजारन’ और ‘कुर्सियों का व्याकरण’ एक धरोहर है हमारे बीच।
पिछले दिनों दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित उनकी एक गज़ल को देखें -

लगने लगा है बिस्तर बाहर दलान में 
बूढ़े के लिए अब नहीं कमरा मकान में।

प्रस्तुत है उनकी पुस्तक ‘एक गज़ल बंजारन’ की पहली गज़ल-

पहले पन्ने में राजा का हाथ खून से सना लिखा है
मनमानी की इस किताब में आगे दुख दुगुना लिखा है

इससे भी पहले अंधों ने अपनों को बांटी रेवड़ियां
भैया तेरी मेरी किस्मत में केवल झुनझुना लिखा है

अपनी कुदरत को बचपन से फाकामस्ती की आदत है
कई दिनों से चौके  की पेशानी पर बस चना लिखा है

इस सियासती बाजीगर को शायद यह मालूम नहीं कि
टूट गया शहजोर फैलकर जब भी हद से तना लिखा है

ज़र्द धूप का टुकड़ा आकर बोल गया कल पत्तों से यूं
चन्द रोज है और कुहासा इसको होना फना लिखा है

एक रोज नेकी ने सोचा मिलें जरा फिर इन्सानों से
देखा हर धर के दरवाजे अन्दर आना मना लिखा है

पत्थर फेंक रहे लोगों का सुनते हैं तू सरपरस्त है
तेरा धर तो खास तौर से शीशे का बना लिखा है । 

‘जनशब्द’ एवं ‘कोसी खबर’ परिवार कवि वसन्त की निम्न पंक्तियों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा निवेदित करता है -
थे नहीं उतने बुरे दिल के वसन्त जी
उठी जब मैयत कहा सबने वसन्त जी
क्या गये जो रूठ कर हमसे वसन्त जी
फिर नहीं हमको दिये रब ने वसन्त जी

तस्वीर में (दायें से बाये) काव्यपाठ करते वसन्त, अरविन्द श्रीवास्तव, हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’, आदित्य, डा. मनमोहन सिंह (पंजाबी शायर एवं आरक्षी अधीक्षक ) .डा भूपेन्द्र नारायण यादव ‘मधेपुरी’ एवं दशरथ सिंह।

रवीन्द्र कालिया को ज्ञानपीठ से बाहर किया जाय -उद्भ्रांत


हिन्दी के वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत ने विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया प्रकरण के संदर्भ’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इन दोनों व्यक्तियों की मानसिकता अपने लेखन और व्यवहार में प्रारम्भ से ही स्त्री विरोधी रही है और इन दोनों की मिलीभगत ने मौजूदा समय में एक ऐसा गर्हित उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है जिसकी मिसाल सौ साल मे इतिहास में नहीं मिलेगी । और पहली बार ऐसा हुआ है कि समूचा हिन्दी समाज इनकी अश्लील जुगलबंदी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। अगर ज्ञानपीठ के प्रबंधकों ने कालिया को तत्काल प्रभाव से वर्खास्त नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब ज्ञानपीठ को हिन्दी के एक भी सुरूचि सम्पन्न पाठक की कमी महसूस होगी । जहाँ तक विभूति नारायण की बात है उनका तो मूल चरित्र पुलिसिया मानसिकता वाला ही है, भले ही सरकारी दवाब में अपनी नौकरी बचाने के लिए उन्होंने माफी अभी मांगी हो लेकिन उनका जाना भी निश्चित है। यह भी विश्वास है कि भविष्य में कोई भी हीन मानसिकता से ग्रस्त रचनाकार या व्यक्ति इस तरह के अश्लील शब्द को सार्वजनिक मंच से प्रयोग करने से पहले हजार बार सोचेंगे । मैं विष्णु खरे के जनसत्ता में दो अंको में प्रकाशित लेख का शत प्रतिशत समर्थन करता हूँ अगर कालिया को ज्ञानपीठ से तुरत बाहर नहीं किया गया तो भारतीय ज्ञानपीठ जिसका गौरवशाली इतिहास है आनेवाले पीढियों की नजरों में एक पतनशील संस्था के रूप में पहचानी जायेगी।
                  
- उद्भ्रांत
वरिष्ट कवि, दूरदर्शन के पूर्व उप महानिदेशक
मो- 09818854678.

बुधवार

कालिया और उनकी ‘टीम’ को ज्ञानपीठ से बाहर किया जाय.... - शहंशाह आलम


इनदिनों हिन्दी साहित्य परिदृश्य में जो कुछ अरोचक, अवैचारिक तथा असाहित्यिक घट रहा है। दुखद है। उत्तेजित करने वाला है।
वरिष्ठ कथाकार तथा महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविधालय के कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ बेवफाई सुपर विशेषांक के लिए ली गयी अपनी बातचीत में लेखिकाओं के प्रति आपत्तिजनक शब्द और उनके लेखन पर अपनी राय देते हुए जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं नाकाविल-ए-वर्दाश्त है।
मेरी दृष्टि में, विभूति नारायण राय से अधिक दोषी ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक होने के नाते रवीन्द्र कालिया जी हैं, जिन्होंने उनकी ऐसी टिप्पणी को बिल्कुल गैर जिम्मेदाराना ढंग से छापा दरअसल, रवीन्द्र कालीया जी जबसे ज्ञानपीठ के निदेशक बने हैं, ज्ञानपीठ की गरिमा धूमिल हुई है। ‘नया ज्ञानोदय’ के जैसे-जैसे असाहित्यिक और बाजारू अंक उनके संपादन में आ रहे हैं, वेहद अफसोसनाक हैं । 
रवीन्द्र’ कालिया जी ‘ज्ञानपीठ’ जैसी गरिमामयी संस्था की शीर्ष पर बैठ कर न्याय नहीं कर पा रहे हैं । इसलिए मेरी मांग है कि रवीन्द्र कालिया जी को तुरत ज्ञानपीठ के निदेशक पद से इस्तीफा  दे देना चाहिए तथा ऐसे कृत्यो मे शामिल उनके सहयोगियों को भी ज्ञानपीठ से निकाल-बाहर करना चाहिए।
     
- शहंशाह आलम, युवा कवि

मो.- 09835417537
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