Kostenlose Uhr fur die Seite website clocks

गुरुवार

मरना अब एक मामूली-सी लाचारी है... नीलाभ की कविता

दिल्ली-दर्शन

इस बस्ती में
ख़्वाब भी नहीं आते इस बस्ती में
आते हैं तो बुरे ही आते हैं
सोने को जाता हूँ मैं घबराहट में
आंख मूंदने में भी लगता है डर
जाने कैसी दीमकों की बांबी बनी है मस्ती में
हवा हो गए हैं नीले शफ़्फ़ाफ दिन
लो देखो गद्दियों पर आ बैठे वही हत्यारे
इस बार तो नकाबें भी नहीं है उनके चेहरों पर

जिंदगी मंहगी होती जाती है मौत सस्ती
मरना अब एक मामूली-सी लाचारी है
अक्सर दिन में कई-कई बार पड़ता है मरना

नीलाभ की कई अन्य कविताएँ ’दोआबा’ के ताजा अंक- 9 में

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts with Thumbnails