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रविवार

वैश्विक कला द्वार पर खड़ी मंजूषा


मंजूषा कला के अपने प्रतीक हैं और अपना ग्रामर. बिहुला की नगरी चम्पापुरी को दिखाने के लिए माली कलाकार चम्पक पुष्प के पेड़ दिखाते हैं. चांदो सौदागर को दर्शाने के लिए पगड़ी चन्द्राकार तिलक बनती है प्रतीक. बाला वह है, जिस पुरूष आकृति के पैर के समीप मुंह खोले सांप का चित्र है. इंद्र को समझना है, तो देखना होगा कि किस आकृति के दाहिने हाथ में कडक़ती हुई विजली है. बिहुला वह है, जो हमेशा खुले बालों में होती है और सामने मंजूषा या फिर नागिन का चित्र होता है. विषहरी देवी को दिखाने के लिए एक हाथ में कलश तथा दूसरे हाथ में सांप, या फिर दोनों हाथ में सांप बनाए जाते हैं. देवी मैना के दाहिने हाथ पर मैना बैठी होती है.। 
इस कला में रेखाएं सांप सी आगे बढ़ती है, लहराती हुई, बलखाती हुई. मानव चित्रों की आकृति कुछ पात्रों को छोडक़र हमेशा एक आंखवाली होती है. अंग्रेजी के एक्स अक्षर की तरह होती है मानव आकृति. आंखें बड़ी होती हैं. कपाल में कान नहीं होते. मर्द आकृति मूंछ और शिखा से पहचानी जाती है. महिला के छाती के उभार के लिए दो वृत बनते हैं. पुरुष के गर्दन मोटे होंगे और स्त्री के पतले. गर्दन बनाने के लिए आधे वृत की तरह कई रेखाएं खींची जाती हैं. लेकिन मंजूषा कला का मोहक ग्रामर हिंदी के उस व्याकरण की तरह नहीं है, जो अडिग है. सालों से चली आ रही इस कला परंपरा में बहुत कुछ छूटा है, तो बहुत कुछ जुड़ा भी है. लोक का एक स्वभाव यह भी है कि जो छूट गया, उसे कौन याद रखे. लेकिन क्या चक्रवर्ती देवी को हम भूल पाएंगे. उस कृतज्ञ समाज को भी उन्हें याद याद रखना होगा, जिसके लिए चक्रवर्ती देवी ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी. बिना किसी पुरस्कार और प्रोत्साहन की अपेक्षा करते हुए, कुछ हद तक लोगों की उपेक्षा से बचते हुए वह औरत पूरी जिंदगी मंजूषा कला से जुड़ी रहीं.
लहसन माली को याद करें तो हमें लगभग छठी शताब्दी में लौटना होगा और चक्रवर्ती देवी की बात करें तो कुछ साल पीछे के अंग जनपद की डायरी के पन्ने पलटने होंगे. लेकिन बीच के 14 सौ बर्षों में इस कला यात्रा में क्या-क्या हुआ, इसका लेखा-जोखा अंग जनपद के पास नहीं हैं. अंगजनपद का इकलौता संग्रहालय, जो भागलपुर के सैंडिस कंपाउंड में है, इन 14 सौ वर्षों में, मंजूषा कला यात्रा पर आपसे कुछ नहीं कह पाएगा. 
इतिहास के पन्नों को आप बहुत खंगालेंगे तो आपको एक नाम मिलेगा- डब्ल्यू जी. आर्चर का. 1940 के आसपास अंग इलाके के अभिभावक थे ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यू जी. आर्चर. कहते हैं कि इलाके के दौरे के दौरान उन्हें एक बार मंजूषा मिला था और उसपर बने चित्रों को देखकर वे चकित भी हुए थे. बाद में उन्होंने मंजूषा के छाया चित्र लंदन भिजवाए थे और लिखा था कि अंग जनपद में एक ऐसी कला रची जाती है जिसमें सांप बनते हैं. 
लंदन म्यूजियम के इंडिया हाउस में उन छायाचित्रों के संग्रहित होने की बात आज भी कही और सुनी जाती है, लेकिन इन बातों की कहीं कोई लिखित गवाही नहीं मिलती
. ये वही आर्चर साहब हैं, जिन्होंने मधुबनी कला की भी पहचान की थी. इसके बाद ही मधुबनी कला गांव की दिवालों से उठकर विदेश की गैलरियों में पहुंची, लेकिन मंजूषा कला आज भी वहीं है, अपनी मिट्टी के साथ, अपने परिवेश के साथ. यह सही है, या गलत, इस पर बहस हो रही है. होनी भी चाहिए, लेकिन मंजूषा कला पर होने वाली कोई भी बहस चक्रवर्ती देवी के बिना पूरी नहीं होती. 
वैसे तो चक्रवर्ती देवी का जन्म पश्चिम बंगाल में हुआ था, लेकिन उनकी शादी चंपानगर के माली परिवार के रामलाल मालाकार से हुई थी. असमय पति की मौत ने उनके लिए कई तरह की मुसीबतें खड़ी कर दी थीं, लेकिन उन्होंने एक बार मंजूषा कला की कूची उठाई तो वह कूची 09 सितंबर,2008 को रूकी, जब उनकी मौत हुई.
चित्रकार ज्योतिष चंद्र शर्मा और शेखर ने उनकी कला को समझने की कोशिश की शुरुआत जरूर की, लेकिन ये कोशिश श्रेय लेने की होड़ में बड़ी जल्दी भटक-सी गई. चक्रवर्ती देवी ने मंजूषा कला के ग्रामर को किस रूप में विरासत में पाया था और बाद के सालों में उनकी कूची से कितने रूप बने, कितने रंग बदले, बात इस पर होनी चाहिए थी, लेकिन बात करने वाले खुद को मंजूषा कला का कोलंबस साबित करने के लिए बेताब थे. कहा जाने लगा कि कि अंग जनपद में सदियों पुरानी एक कला परंपरा का दम घुटा जा रहा है. चुप बैठी है कूची, रंग उदास हो रहे हैं. कुछ लोगों की चिंता ये सामने आने लगी कि यह कला बाजार में बिक नहीं पा रही. पत्र-पत्रिकाओं में न तो कला को और न ही कलाकारों को जगह मिलती है. सवाल ये भी उठा कि चक्रवर्ती देवी के बाद कौन? लेकिन किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि चक्रवर्ती देवी के पहले कौन थे?
ऐसा नहीं था कि चक्रवर्ती देवी मंजूषा कला में प्रयोग की पक्षधऱ नहीं थीं. वह चाहती थीं कि खूब खिले इस कला का रंग. आज शायद वो होतीं तो उन्हें जानकर अच्छा लगता कि नामी गिरामी फैशन इंस्टीच्यूट के कुछ स्टूडेंट मंजूषा कला के मोटिव को अपने प्रोजेक्ट में शामिल कर खुलकर प्रयोग कर रहे हैं. उन्हें ये जानकर अच्छा लगता कि चित्रकार प्रीतिमा वत्स ने नए अंदाज में मंजूषा कला को अपने कैनवस पर जगह दी है. प्रीतिमा के बिहुला के पास मोबाइल देखकर चक्रवर्ती देवी को एक सुखद अहसास होता. और भी कई नए कलाकारों का अंदाज उन्हें आशवस्त करते. ये प्रयोग उन लोगों को भी अच्छे लग रहे हैं, जो चाहते हैं कि मंजूषा कला का आने वाला कल...बीते कल से ज्यादा रंगीन हो. शायद ये चाहत ही है, जिसे देखकर अंग जनपद को भी भरोसा होता है कि लहसन के रंगों ने गाए थे आस्था के जो गीत....वे गीत सदियों तक गूंजते रहेंगे. किसी न किसी घर से तो आवाज आएगी ही- 
मंजोसा लिखबे रे मलिया धरम कत्तारे रे.
मंजोसा लिखबे रे मलिया तैंतीस कोट देव रे॥
मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित देव प्रकाश चैधरी की पुस्तक ‍’लुभाता इतिहास-पुकारती कला’ में इन विषयों पर पकाश डाला गया है। 
बहरहाल कला मंडी में बीमार चल रहे 'मंजूषा कला' को नई संजीवनी देने की सार्थक पहल चन्द्रप्रकाश ‘जगप्रिय’ द्वारा संपादित  ‘अंगप्रदेश की लोककला मंजूषा’   एक बहुमूल्य दस्ताव़ेज के रूप में दिखती है ।  डा.अमरेन्द्र, डा. श्यामसुन्दर घोष. मनोज पांडेय आदि के आलेख सहित  पचास से अधिक मंजूषा चित्रों से सज्जित यह पुस्तक क्षेत्र विशेष की परिधि से निकल कर वैश्विक स्तर पर धूम मचाने को तैयार है।
संपादक सम्पर्कः चन्द्रप्रकाश ‘जगप्रिय’
पुलिस उपाधीक्षक, 23ए/60 आफिसर्स फ्लैट,
बेली रोड, पटना-1.मो. 09973880362.

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

vaah bhaai vaah..achchhi janakaari di aapane... maibhi anga ka rahane vaala hoon..

अरविन्द श्रीवास्तव ने कहा…

इस आलेख की चर्चा ’डेली न्यूज’ में देखें, लिंक- http://blogsinmedia.com/2011/01/

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