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सोमवार

पाखी (जन.-11) में प्रकाशित ‘युवा कहानी का चेहरा यह भी’ ब्लागर मित्रों के लिए....

                                  

कहानी अभिव्यक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माध्यम रही है। समय व काल को व्यक्त करने के लिए यह विधा सनातन हो चली है। स्वातंत्रोत्तर हिन्दी कहानी ने अपनी भाषाई सरलता एवं यथार्थपरक विषयों पर आधारित होने एवं सम्प्रेषणीयता की वजह से आमजन की संवेदनाओं को गहराई से स्पर्श किया है। कहानियों को समय के साथ-साथ कई-कई प्रयोगों के दौड़ से गुजरना पड़ा है। समय की चाक पर गढ़ी गयी कहानियों को अपनी सर्जनात्मक भाषा के साथ साथ बिम्बों में भी पैनापन लाना पड़ा है। साठोत्तरी कविता की तरह समय के साथ कहानियों की रोमानी उड़ान वाली नकेल कसी गयी। समय के साथ-साथ कहानियाँ आसपास बिखड़े घटनाक्रमों पर केन्द्रित होने लगी जिससे देशज व आंचलिक शब्द लुप्त होने से बचे रहे, उनमें जीवंतता आयी और उन्हें व्यापक स्पेश भी मिला। कहानियाँ कुलीन कक्षों से निकलकर खेत-खलिहानों का सफर तय करने लगी। हिन्दी कहानियों का जलवा ऐसा रहा कि देवकीनंदन खत्री की चन्द्रकांता संतति पढ़ने के लिए गैर हिन्दी भाषी हिन्दी सीखते और प्रेमचंद के उपन्यास लड़कियों को दहेज में दिए जाते अथवा वे स्वंय छिपा कर मायके से ससुराल लाती। 
       बहरहाल कहानियों का यह सफर दलित लेखन और स्त्री लेखन-सी ‘प्रेतछायाओं’ से आगे बढ़कर
‘परिकथा’ ने युवा सृजनशीलता पर केन्द्रित युवा यात्रा -1 और 3 के अंतर्गत कहानी अंक -2 और युवा कहानी अंक-2 प्रकाशित कर नई पीढ़ी का बड़ा उपकार किया है। ऐसे समय में जब एक बड़ी पीढ़ी अपने को आईपीएल, फेसबुक और बिगबास तक सीमित रखी है। परिकथा का ताजा कहानी अंक -2 के अन्तर्गत दूधनाथ सिंह, रमेश उपाध्याय, स्वयं प्रकाश, नमिता सिंह और संजीव जैसे शीर्षस्थ कथाकारों से बातचीत कर युवा रचनाशीलता के लिए मार्गदर्शन का काम किया। प्रियदर्शन , राकेश बिहारी, भरत प्रसाद और अशोक कुमार पाण्डेय के ताबड़तोड़ विचारो ने युवा लेखन की धार को और अधिक पैना कर उनकी विश्वसनीयता को पुख्ता किया है। प्रेम भारद्वाज की ‘जड़ें’ मानवीय विवशता का हलफनामा पेश करती है, देखें एक छोटी सी बानगी ‘मी लाॅर्ड......अब फैसला आपके हाथ में है.....।’ ‘सजा सुनाने से पहले मुझे मेरा अपराध बताया जाए।’ अपराधियों के कटघरे में खड़ा वह चीखता है। ‘सच्चा , ईमानदार और कमजोर होना’ वकील की दलील।......  वहीं हरिओम की  ‘जिंदगी मेल’, अरुण कुमार ‘असफल’ की ‘तरबूज का बीज’, आनंद वर्धन की ‘सिवइयाँ’, पंकज सुबीर की ‘छोटा नटवरलाल’ कविता की ‘नेपथ्य’, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की ‘टीन टप्पर’ और शिरीष कुमार मौर्य की ‘उदासनगर के खुशीराम’ आदि तमाम कहानियाँ मानवीय रिश्तों से ताल्लुकात रखते हुए, बाजारवाद से सहमी और फिर इस गिरफ्त से मुक्त होने की उत्कट लालसा को दर्शाती है। इस अंक की कई कहानियाँ नवउपभोक्तावाद और राजनीति के खुरदुरे चेहरे को एकसाथ बेनकाव कर एक और नये युग, नई धारा का सूत्रपात करते दिखती है। तीन कथा पुस्तकों की समीक्षा के साथ कुल 144 पृष्ठों की यह दस्तावेज युवा यात्रा का ऐतिहासिक पड़ाव है। आज के बाजारवादी व्यवस्था में कुछ आलोचकों की निगाह विशेषकर साहित्यिक पत्रिकाओं के संदर्भ में इस बात पर टिकी होती है कि ‘यह योद्धा अगली पारी में थक कर पैवेलियन लौट जाएगा’ लेकिन इन मिथिकों के विपरीत एक नई ऊर्जा और हौसले से ‘परिकथा’ के संपादक- शंकर ने अपने सामाजिक और साहित्यिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए युवा कहानी अंक-2 को साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया। यहाँ सामाजिक और साहित्यिक दायित्व से तात्पर्य यह है कि, जैसा कि उन्होंने अपनी संपादकीय में लिखा है- ‘दरअसल साहित्य की मूल चिंताएँ समाज की ही चिंताएँ हैं। समाज बचेगा तो साहित्य भी बचेगा, समाज ही नहीं बचेगा तो साहित्य बचकर क्या करेगा ?’’ संपादकीय चिंतन के दायरे में सम्पूर्ण समाज और विश्व है। इस वर्ष साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले पेरू के साहित्यकार जॉर्ज मारिओ पेद्रो वर्गास लोसा का कहना है कि- ‘मुझे विश्वास है कि बिना साहित्य का कोई समाज, या ऐसा समाज जिसमें साहित्य को पदावनत कर दिया गया है वह आध्यात्मिक रूप से उद्दंड होगा।’ ‘परिकथा’ के संपादक ने अपनी जिम्मेदारियों को महसूसते हुए ‘युवा कहानी अंक-2’ का एक और अविस्मरणीय  अंक प्रस्तुत किया। इस अंक में ‘युवा कहानी और उसका समय’ विषयक परिचर्चा  में - प्रेम भारद्वाज, हरिओम, राकेश कुमार सिंह, संज्ञा उपाध्याय, अरुण कुमार ‘असफल’ और शैलेय ने शिरकत की। इस खंड में जो महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आयी उसका मूल यह है कि - सोवियत साम्यवादी सत्ता के विघटन के पश्चात जो एक वैचारिक रिक्तता महसूस की गयी, इस परिदृश्य में कथा साहित्य का ‘ट्रेंड’ किस ओर बढ़ा, भूमंडलीयकरण, बाजारवादी और नवउपभोक्तावादी व्यवस्था में युवा लेखन की बेचैनी, दशा और दिशा को समग्रता से महसूसा गया। शैलय ने - पिछली शताब्दी के अंतिम दशक और नई शताब्दी के आरंभिक दशक के कालखंड पर अपने विचारों से कुछ इस तरह अवगत कराया, कि- ‘पिछली शताब्दी के अंतिम दशक के दौर में आए नारे -‘इतिहास का अंत’, ‘विचारधारा का अंत’ व ‘कविता का अंत’ दरअसल हमें अपने इतिहासबोध से काटकर अपने अपरिहार्य दायित्वबोध से अलग किए रहने की गहरी साजिश है।’ युवा कथाकारों के रचना संसार में प्रेम रंजन अनिमेष की कहानी ‘सात सहेलियाँ खड़ी-खड़ी....’ अनुज की ‘टार्गेट’, राकेश बिहारी की ‘बिसात’, सत्यनारायण पटेल की ‘गम्मत’, बसंत त्रिपाठी का ‘घुन’, भरत प्रसाद की ‘महुआ-पट्टी’, शैलय की ‘बर्फ’, अशोक कुमार पाण्डेय की ‘पागल है साला’, जयश्री राय की ‘साथ चलते हुए...’ शेली खत्री की ‘मकान’, आरती झा की ‘लो, मैं आ ही गई!’ घनश्याम कुमार ‘देवांश’ की ‘दुनिया खतरे में है’, रणीराम गढ़वाली की ‘चैफला’, मिथिलेश प्रियदर्शी की ‘यह आम रास्ता नहीं है’, चरण सिंह पथिक की ‘परछांइयों में गुलाब’, और दिनेश कर्नाटक की ‘अंतराल के बाद’ आदि कहानियाँ विषयगत वैविध्यता के बावजूद अपने कथ्य और शिल्प के माध्यम से हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध बनाने की पुरजोर पहल है। अंक के स्थायी स्तंभ - उर्दू जगत, ताना-बाना और ब्लाग ने भी अंक को कालजयी बनाने की सार्थक कवायद की है।-अरविन्द श्रीवास्तव 
     

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