सोवियत साम्यवादी सत्ता दरकने के लगभग बीस वर्ष हो चुके हैं। इस अन्तराल में जो सांस्कृतिक रिक्तता भारत और भारत सदृश्य विकासशील राष्ट्रों में आयी है, उसे खुलकर नहीं तो अन्दर ही अन्दर एक मुकम्मल पीढ़ी महसूस रही है। कहाँ है सस्ते साहित्य का जखीरा! साहित्य ही क्यों अध्ययन की तमाम विधाओं मसलन् इतिहास, राजनीति और दर्शन सहित भौतिकी, रसायन और बनस्पिति शास्त्र की, बच्चों के लिए चटकदार रंगीन पुस्तकें, सामयिक पत्रिकाएं आदि आदि। ये सारी सामग्री महज वैचारिक खुराक ही नहीं थी, वरन् मानव जीवन के सहज विकास के सहायक तत्व थे। प्रगति प्रकाशन, रादुगा प्रकाशन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, रेडियो मास्को, इस्कस और प्राव्दा, इजवेस्तिया व नोवस्ती प्रेस एजेंसी जैसे, सोवियत साम्यवादी व्यवस्था के सहयोगी अंग क्यों न रहे हों, धरती पर अन्य ‘व्यवस्था’ मे जन जागरण का यह माद्दा, उत्साह और जुनून नहीं रहा है। थोड़ी देर के लिए यदि हम अलेक्सान्द्र पुश्किल और लियो तालस्तोय को मात्र रूस का ही लेखक माने तो कौन सा देश अपने लेखकों के लिए उनकी रचनाओं को प्रकाशित व अनुवाद कर विश्व के जन जन तक पहुँचाने का बीडा़ उठाता है, निःशुल्क या बिल्कुल अल्पमूल्य में। धरती को कचड़ा घर बनाने के अलावे सम्पन्न मुल्कों ने और क्या किया है इस पृथ्वी के लिए ? संहार के नये इल्म तलाशने, सभ्यता की सुरक्षा, सुख और विलासिता के लिए मोबाइल.........मैट्रो, मिसाइल......., बौद्धिक-वैचारिक, सांस्कृतिक शून्यता और खोखले मस्तिष्क पर समृद्धि व कथित सुरक्षा का मुलम्मा।
दुनिया के तमाम लेखक और लेखक संगठनों को अपनी सरकार और हुक्काम पर दबाव बनानी चाहिए कि जिस तरह हवा, पानी, धूप और चांदनी पर सभी का हक है, ठीक वैसे ही साहित्य पर!
-अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा
मोबाइल- 09431080862.
4 टिप्पणियां:
आप ने सही कहा यह मांग होनी चाहिए। इस से व्यवस्थाओं का फर्क तो पता लगता है।
आपने अतीत के सुनहरे पल को याद किया ......शुक्रिया.
दुनिया के तमाम लेखक और लेखक संगठनों को अपनी सरकार और हुक्काम पर दबाव बनानी चाहिए कि जिस तरह हवा, पानी, धूप और चांदनी पर सभी का हक है, ठीक वैसे ही साहित्य पर!
आप ने सही कहा .....!!
मुझे "अन्ना कारेनिना" और "कारामाजोव बन्धु" पुस्तक के हिन्दी अनुवाद कहाँ मिल सकेगा कृपया सलाह दिजिए ।
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