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गुरुवार

एक खामोश कवि की अग्नि-ऋचाएँ





नई पीढ़ी. के कवियों में राकेश प्रियदर्शी ने अपनी काव्यात्मक सोच और धार की बदौलत समकालीन कविता जगत में अपनी पहचान कायम की है। उनकी नवीनतम कृति ‘इच्छाओं की पृथ्वी के रंग’ में एक संवेदनशील दृष्टि के साथ मानवीय चिंताओं के प्रति बेचैनी और छटपटाहट स्पष्ट दिखती है। सभ्यता के पैर में पड़ी हजारों वर्षों की बेड़ी वह आनन फानन में खोलना चाहते हैं। पुस्तक में प्रकाशित इनकी कविताओं के बिंव-चित्र, जीवंत काव्य विन्यास, काव्य विधा पर इनकी पकड. को आश्वस्त प्रदान करते हैं। गहन सूक्ष्मता संजोए इनकी कविताओं का बहुरंगी फलक पाठकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक ‘इच्छाओ की पृथ्वी के रंग’ की कुछ बानगी-

लिहाजा मुझे फांसी दी जानी चाहिए,
कि मेरी रूह से सच की बू आती है
लिहाजा मुझे काल कोठरी में कैद
कर देना चाहिए
कि मेरे शब्द गर्म होकर आग उगलते हैं
लिहाजा मुझे रस्सी से बांधकर पथरीली
सड.कों पर घसीटा जाना चाहिए
कि आज भी मै उतना ही वफादार हूँ
जितना एक पालतू कुत्ता
.......
                                   ‘गुलाम हाजिर है’ शीर्षक कविता

 वह नदी की आँखों में डूबकर
सागर की गहराई नापना चाहता था
और आसमान की अतल ऊंचाईयों में
कल्पना के परों से उड़ान भरना चाहता था,
पर वह नदी तो कब से सूखी पड़ी थी,
बालू, पत्थर और रेत से भरी थी
2.

वह कैसी नदी थी जिसमें स्वच्छ जल न था,
न धाराएं थी, न प्रवाह दिखता था,
वहां सिर्फ आग ही आग थी
....
                                              ‘नदी’ शीर्षक कविता

लेखक सम्पर्कः पटना, मोबाइल-09835465634

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

GANGA.....GANGAA....GANGAAA.
BHAI AUR KI NADI TO HAI NAHI JO GANA SE BHI MAILI HO...
http://etips-blog.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार इन्हें प्रस्तुत करने का.

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