लोक धर्मिता की हृदय-स्पर्शी कविताओं और लोक दृष्टि के तत्वों से सम्पूरित आलेखों से संकलित ‘कृति ओर’ का अक्टूबर-दिसम्बर ’10 का 58 वाँ अंक कई अर्थों में विशेष उल्लेखनीय हैं। लोक, जनपद और काव्यभाषा पर संदर्भित संपादक विजेन्द्र का आलेख ‘कृति ओर’ से जुड़े कवि, लेखक तथा पठकों को यह सोचने को विवश कर देता है कि हिन्दी और संस्कृत की कविता तथा उसका काव्यशास्त्र या आलोचना की आत्मा भारतीय आत्मा से भिन्न नहीं है- फिर भी जनजातियांे की जीवनशैली और संस्कृति इस कथित भारतीयता से मेल नहीं खाती। इस अभिप्राय का मंथन सदियों से चला आ रहा है। संपादक का विचार इस संबन्ध में वही है- जो कबीर का था-
गंग तीर मोरी खेती बारी
जमुन तीर खरियाना
सातों बिरही मेरे निपजै
पंचू मोर किसाना।
सत्येन्द्र पाण्डेय का आलेख ‘समकालीन कविता में लोक दृष्टि’ तथा रामनिहाल गुंजन की ‘केशव तिवारी की काव्य चेतना’ में जहाँ कविता में लोक तत्व की मुखरता है वही सामाजिक कुरीतियाँ एवं राजनैतिक पाखण्ड के प्रति विद्रोह के शब्द गरजते हैं।
हसी तरह शहंशाह आलम की कविता ‘धार्मिक विचारों को लेकर’ उसी धार्मिक ढोंग को रेखांकित करती है - जो अभी सम्पूर्ण विश्व की ज्वलन्त समस्या है। अन्य कविताएँ भी पठनीय है। संपर्क- ‘कृति ओर’ संपादकः रमाकांत शर्मा, ‘संकेत’ ब्रह्मपुरी-प्रतापमंडल, जोधपुर-342 001.(राजस्थान) मोबा.- 09414410367.
1 टिप्पणी:
http://www.apnimaati.com/2011/01/blog-post_758.html par hamane ye samikshaaen post ki hai......paathako ke hit men
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