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शुक्रवार

दिवंगत शिवराम की सृजनशीलता को समर्पित ‘प्रतिश्रुति’ का यह अंक


ऐसा सोचा कीजिए, जब मन होय उदास
एक सुंदर-सा स्वप्न है,अब भी अपने पास
                                                     
जोधपुर के मरुस्थल से भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित ‘प्रतिश्रुति’ (त्रैमासिक) का अक्टूबर-दिसम्बर ’10 अंक विचारोत्तेजक आलेख एवं मर्मस्पर्शी कविताओं के कारण हिन्दी पत्रिकाओं की शीर्ष पँक्ति में स्थान पाने को सक्षम है। संपादक डा. रमाकांत शर्मा ने अपने संपादकीय में आज की मुखर और वाचाल कविता ही नहीं, जिन फूहर कविताओं की ओर अंगुली उठाई है- वस्तुतः वह सपाटबयानी है और ऐसी कविताओं ने हिन्दी साहित्य का घोर अनिष्ट किया है। यही नहीं ‘उद्वोधन’ और ‘उपदेश’ भी कविता का क्षेत्र नहीं है। संपादक के अनुसार जीवन और जगत के मार्मिक चित्र मनुष्य को क्रियाशील बनाती है कविता। कविता अनुभव का हिस्सा बनकर संवेदनात्मक और इन्द्रियबोधात्म रूप में प्रस्तुत होती है तब वह प्रभावी, विश्वसनीय और आत्मीय हो जाती है। यह मार्गदर्शन भावी काव्यकारों के लिए सर्वथोचित है।
इस अंक के आलेख ‘पाठकों की बदलती रूचि और सृजन का संकट’ मे लेखक प्रेमपाल शर्मा अपने लंबे शैक्षणिक प्रशासनिक अनुभवों के आधार पर बेखौफ कह सकते हैं कि अनेकानेक वैज्ञानिक उपकरणों के कारण अब सृजन भी ‘हईटेक’ हो चुके हैं। फिर भी सृजन में संकट है- किन्तु सर्जक का संकट नहीं। निर्माण और ध्वंस का क्रम चलता रहेगा, लाख संकट में भी सृजन होते रहेंगे। 
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और माक्र्सवादी विचारक शिवराम जी पर महेन्द्र नेह का स्मृति शेष आलेख ‘नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों की मशाल’ उनके संघर्षशील और क्रांतिकारी विचारों को सलाम करता है। अंक से सुधीर विद्यार्थी की एक छोटी कविता ‘बीज’ 
-यदि मैं कठफोड़वा होता /तो दुनिया भर के /काठ हो चुके लोगों के / सिरों को फोड़ कर / भर देता जीवन के बीज  

डा. रमाकांत शर्मा 
संपादकः प्रतिश्रुति
‘संकेत’ ब्रह्मपुरी-प्रतापमंडल,
जोधपुर-342 001.(राजस्थान) मोबा.- 09414410367.

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