सारा हमारे वक़्त की एक शायरा और एक इंसान का इक़बालिया बयान है, जिसे शाहिद अनवर ने एक लंबे एकालाप की तरह दर्ज किया है। लेकिन यह भीषण, परेशानकुन और ज़मीर को झकझोर देने वाला क़बूलनामा दरअसल एक बड़ा अभियोग-पत्रा है, जिसमें एक मासूम औरत और एक बेमिसाल शायरा अपनी त्रासद मृत्यु के लिए पुरुष जाति को गुनहगार ठहराती है। सारा के पति और सरपरस्त मर्द उसे हर बार सिर्फ इसलिए सज़ा देते रहे कि वह एक औरत थी और इसलिए भी कि वह शायरी करती थी। प्रेम की एक बेचैन तलाश में सारा ने चार विवाह किए और हर बार उसे अपमान और उत्पीड़न और क्रूरता का शिकार होना पड़ा। उसके पतियों में कुछ अच्छे-ख़ासे शायर भी थे, लेकिन वे भी मर्द ही साबित हुए और उन्हें भी सारा का शायरी करना गवारा नहीं हुआ। इसलिए नहीं कि वे शायरी के विरोध्ी थे, बल्कि इसलिए कि वे एक शायरा को अपनी बीवी बेशक बनाना चाहते थे, उस बीवी को आज़ाद रह कर शायरी करते हुए नहीं देख सकते थे। ‘मेरे क़बीले की कोख से / जब सिर्फ चीख पैदा हुई / तो मैंने बच्चे को गोद से फेंक दिया / और चीख़ को गोद ले लिया’ कहने वाली सारा आखि़रकार मौत को गोद ले लेती है, लेकिन यह मामूली मौत नहीं है, बल्कि यह किसी ज़मीर, किसी पाकीज़गी, किसी कायनात, किसी ख़ुदाई के और उसके परे भी कोई है तो उसके सामने और उसके भीतर गूंजते हुए अभियोगों और लानतों का एक दस्तावेज़ है। तमाम मर्दों और उनकी सामंती-बेरहम-ज़ालिम सत्ता के ख़िलाप़फ तमाम आज़ाद आत्माओं वाली औरतों की तरफ से एक अभियोग-पत्र !
इस एकल नाटक में सारा एक जगह अपने शौहर को ‘यज़ीद’ कहकर बुलाती है तो एक और जगह कहती हैः ‘तुम्हें जब भी कोई दुख दे / तो उस दुख का नाम ‘बेटी’ रखना।’ सारा के चार विवाह असल में चार मौतें, चार खुदकुशियां हैं और पांचवीं बार जब वह सचमुच ज़िंदगी की तरप़फ जा रही होती है, जब उसे अपनी मासूमियत और अपने प्रेम का कोई प्रतिबिंब और प्रतिरूप किसी सईद के भीतर नज़र आने लगता है तो वह ख़ुद अपना ख़ात्मा कर लेती है।...
इस एकल नाटक में सारा एक जगह अपने शौहर को ‘यज़ीद’ कहकर बुलाती है तो एक और जगह कहती हैः ‘तुम्हें जब भी कोई दुख दे / तो उस दुख का नाम ‘बेटी’ रखना।’ सारा के चार विवाह असल में चार मौतें, चार खुदकुशियां हैं और पांचवीं बार जब वह सचमुच ज़िंदगी की तरप़फ जा रही होती है, जब उसे अपनी मासूमियत और अपने प्रेम का कोई प्रतिबिंब और प्रतिरूप किसी सईद के भीतर नज़र आने लगता है तो वह ख़ुद अपना ख़ात्मा कर लेती है।...
क्या यह ‘दुख’ नामक बेटी की नियति है जिसका ज़िक्र सारा ने अपनी शायरी में किया है या सारा इस दुनिया में, जहां तमाम पुरुष उसे एक आसान शिकार की तरह देखते हैं, उसे हासिल करना चाहते हैं, लेकिन उसके भीतर किसी दुख, किसी विकलता, किसी स्वप्न को नहीं पहचान सकते, एक ऐसी दुनिया जिसमें प्रेम को पहचानने की संवेदना और मासूमियत नहीं बची है, और पति या प्रेमियों के द्वारा किए जा रहे बलात्कारों को ही प्रेम माना जाता है, अपने ख़ात्मे से कुछ सवाल छोड़े जा रही है, जो उसकी क़ब्र से भी उठते हुए आएंगे।
सारा शगुफ्ऱता की ज़िंदगी पढ़ते हुए ही पाठक कांप उठता है तो इसे खेलते हुए देखना किस क़दर भयानक होगा। लेकिन इसे कई बार खेला जा चुका है। महेश दत्तानी के निर्देशन में मुंबई में हुए ‘सारा’ के कई प्रदर्शन बहुत चर्चित हुए और कई बार शिव सेना के गुंडों ने इसे ‘पुरुष-विरोध्ी’ क़रार देकर प्रदर्शन रुकवाने और तोड़पफोड़ करने की कोशिशें कीं। यह सामंती पुरुषवादी राजनीति की तिलमिलाहट का और इस एकालाप की कामयाबी का एक सबूत है। और इस बात का सबूत तो है ही कि सारा की ज़िंदगी और मौत और जो कुछ उसे आज़ाद रहने की अपनी पि़फतरत के लिए झेलना पड़ा, वह सब ज़ाया नहीं गया, उसके मानी ज़िंदा हैं और रहेंगे। सारा एक जगह अपने ज़ालिम शौहर से प्राचीन रोमन साम्राज्य के बाग़ी गुलाम स्पार्टाकस जैसे अंदाज़ में कहती हैः ‘मैं फिर आउंगी’।
कुछ साल पहले पंजाबी की आज़ाद-ख़याल लेखिका अमृता प्रीतम ने सारा की कहानी को उसकी चिट्ठियों और नज़्मों के ताने-बाने से बुना था और अब शाहिद अनवर ने उसकी बुनियाद पर एक ऐसे स्वतंत्रा और एकल नाट्य की रचना की है, जिसके मंच पर सारा गोया अपनी ही क़ब्र से उठकर आई है और अपनी कहानी कह रही हैः ‘अक्सर चूल्हे में आग को छांटने के लिए कुछ नहीं मिलता / और हमारे घर में आग प्यासी होती चली गई...’ इस तीखी कारुणिक और बड़बड़ाती हुई दास्तान की भाषा भी इतनी सघन, आवेगपूर्ण और दृश्यमय है कि कुछ ही वाक्यों में एक पूरी ज़िंदगी सामने उपस्थित हो उठती है-
अपनी मां की तरह मुझे भी घर की तलाश थी। चार बार मेरी शादी हुई। चार बार मैं पागलख़ाने गई। चार बार ख़ुदकुशी की कोशिश की, नाकाम कोशिश, और चार किताबें इस लप़फज़मारी के हाथ लगीं... पहली बार जब दुल्हन बनी तो चैदह बरस की थी और तीन साल में तीन बच्चे जने। मैं बुर्क़ा ओढ़े दो बच्चों की उंगली थामे, और एक बच्चे पर बुर्क़ा ताने सब्ज़ी ख़रीदने जाया करती। एक बच्चे को दूध् पिलाती और बाक़ी दो बच्चों को डांटती, ‘अब तुम रोटी चबाने लायक़ हो चुके हो’। मैं सब्ज़ी यूं ख़रीदती कि चवन्नी बची रहे। जब काफ़ी चवन्नियां जमा हो गईं तो नवीं क्लास की किताबें ख़रीद लीं और पढ़ना शुरू कर दिया। नवीं पास की तो शौहर की मार के बावजूद फ़ैमिली प्लानिंग में सर्विस कर ली। अब बच्चों को देखती, घर का काम करती, नौकरी पर जाती, और पिफर बच्चों को सुलाकर मैट्रिक की तैयारी करती।
और अपनी पांचवीं और आख़िरी खुदकुशी को सारा जिस तरह बताती है, वह मंज़र एक तीर की तरह दिल में ध्ंस जाता है-
मेरे पैरों तले की ज़मीन चुरा ली गई थी और मेरे बदन को ही मेरा वतन क़रार दे दिया गया था, ये कब तक क़बूल करती रहती? इंसानों के दाग़ धेते - धेते मेरे तो हाथ काले पड़ चुके थे। उदासी का एक अथाह समन्दर मेरी छोटी सी कश्ती में हरदम सवार रहता। ख़ुदा तो चांद की स्याही से रात लिखता है, लेकिन ख़ुदा के बंदों ने रात की स्याही से मेरे दिन लिख दिए थे। दुनिया की बेज़मीरी मेरा बदन चाट चुकी थी। बस एक रूह थी, जिसे मैंने मस्जिद की ईंट की तरह बचा रखा था। कहते हैं, बदन में बहुत दिन क़ैद रही तो रूह में ज़ंग लग जाता है, सो चार जून 1984 की उस रात मैंने कर बिस्मिल्लाह खोल दी गांठ...
मौत की ज़बान में लिखी हुई यह दास्तान एक बहुत बड़ा ज़िंदगीनामा है। एक ऐसी शख़्सियत की प्रेम-कथा जो उर्दू की शायद पहली ‘बाग़ी युवा शायरा’ कही जाती थी, जिसकी शायरी में एक जादुई ताक़त थी जिससे लोग चमत्कृत थे और उसे अपनी प्रेमिका, अपनी पत्नी, अपनी बांदी, अपनी रक्षिता, अपनी कनीज़ बनाना चाहते थे, लेकिन अपनी शत्र्तों पर। यह उसे मंज़्ार नहीं था, इसलिए उसे, बार-बार, अपने जीवन को होम करना पड़ा।
सारा अपनी मृत्यु की माऱ्फत अमर हो गई है!- दोआबा, दिस. १०
3 टिप्पणियां:
सारा शगुफ्ता जी की बहुत ही मार्मिक कथा से आपने रु-बरु कराया... बेहद अफ़सोस जनक है.... मर्द हमेशा ही औरतों की कामयाबी से जलते आएं हैं, इसी जलन में कितनी ही औरतों को झुकना पड़ा है या फिर शगुफ्ता जी की तरह टूटना पड़ा है... सच में बेहद अफ़सोस की बात है...
जिन्दगी की तल्ख हकीकत है सारा.. हमे आपने आईना दिखा दिया.
जिन्दगी की तल्ख हकीकत है सारा.. हमे आपने आईना दिखा दिया.
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