विरासत
अर्सा गुजर गया
जमींदोज हो गये जमींदार साहब
बहरहाल सब्जी बेच रही है
साहब की एक माशूका
उसके हिस्से
स्मृतियों को छोड.
कोई दूसरा दस्तावेज नहीं है
फिलवक्त, साहबजादों की निगाहें
उनके दांतों पर टिकी है
जिनके एक दांत में
सोना मढ़ा है।
-अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा
-अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा
5 टिप्पणियां:
अच्छा सटायर है भाई इस कविता में ।
मासूका की जगह माशूका कर लें ।
bahut sahee likha hai...
nice
वाह जी बहुत सुंदर
बहुत खूब। पर मुझे 'मासूका' में एक खास महक लगती है जो कविता की आत्मा का हिस्सा है। मासूका संभ्रांत नहीं है, वरना वह माशूका होती, वह शोषिता है और उसकी स्मृतियां भी पीड़ाओं की ही होगी। कवि का स्मृतियों का विवरण-विश्ललेषण न देना कविता की सोची-समझी बारीकियां हैं। साथ ही जमींदारी प्रथा की समाप्ति से इस वर्ग में आई गिरावट सोने के दांत के लिए हो रही लड़ाई से परिलक्षित हो जाती है। अरविन्द जी का साधुवाद.
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