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रविवार

आज ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक (रविवार रीमिक्स) में प्रकाशित अपनी तीन कविताएँ ब्लॉगर मित्रों के लिएः-




विरासत

अर्सा गुजर गया
जमींदोज हो गये जमींदार साहब

बहरहाल सब्जी बेच रही है 
साहब की एक माशूका

उसके हिस्से 
स्मृतियों को छोड. 
कोई दूसरा दस्तावेज नहीं है

                                                फिलवक्त, साहबजादों की निगाहें
                                               उनके दांतों पर टिकी है
                                               जिनके एक दांत में
                                               सोना मढ़ा है।

                             -अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा 

5 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

अच्छा सटायर है भाई इस कविता में ।
मासूका की जगह माशूका कर लें ।

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

bahut sahee likha hai...

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वाह जी बहुत सुंदर

Piyush ने कहा…

बहुत खूब। पर मुझे 'मासूका' में एक खास महक लगती है जो कविता की आत्मा का हिस्सा है। मासूका संभ्रांत नहीं है, वरना वह माशूका होती, वह शोषिता है और उसकी स्मृतियां भी पीड़ाओं की ही होगी। कवि का स्मृतियों का विवरण-विश्ललेषण न देना कविता की सोची-समझी बारीकियां हैं। साथ ही जमींदारी प्रथा की समाप्ति से इस वर्ग में आई गिरावट सोने के दांत के लिए हो रही लड़ाई से परिलक्षित हो जाती है। अरविन्द जी का साधुवाद.

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