अभी सप्ताह भर पटना में रहा, छोटी सी मुलाकात में शहंशाह आलम ने अपनी नयी पुस्तक ‘अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस’ भेंट किया। इसके पूर्व उनकी दो अन्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी है, ’गर दादी की कोई खबर आए’(1993) और ‘अभी शेष है पृथ्वी राग’ (1995)। अभी प्राप्त संग्रह में अच्छे संकेत दिखते हैं,- इसमें मुश्किल वक्त से गुजरते मानव-सभ्यता के लिये उत्साह और उम्मीद का पैगाम है। प्रस्तुत है ‘अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस’ से सायकिल शीर्षक कविता-
खेल-खेल में
ईजाद नहीं हुआ होगा
सायकिल का
लेकिन खेल-खेल में
सीख जाते हैं
सायकिल चलाना लड़के
दो
हमारे शरीर की तरह
पंचभूतों से ही बनी लगती है
यह सायकिल
सोचता हूँ भर जी सोचता हूँ
सायकिल सिर्फ़ सायकिल क्यों है
क्यों नहीं है
एक संपूर्ण देह
जिसमें कि
एक बेचैन आत्मा
वास कर रही है।
4 टिप्पणियां:
अच्छी कविता है। शहंशाह आलम को मेरी ओर से नई पुस्तक के लिये बधाई भाई!-
सुशील कुमार
बहुत प्यारी कविता है शहंशाह की यह ..मेरी बधाई और प्यार..
one of the most tuching poetries i have ever read
शहंशाह को नई पुस्तक के लिए ढेरों शुभकामनाएं…
ब्लॉग के लिए आपको भी।
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