अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर शिल्प में एक अर्थ में जयशंकर प्रसाद के बहुत करीब हैं। तीनों ही जटिल संवेदनाओं के कवि हैं। तीनों की मित्रता भी अनायास नहीं है। तीनों की जटिलता तीन तरह की है। मुक्तिबोध मार्क्सवाद का सिद्धांत-कथन करते हैं। उनकी कविता में पैठ के लिए मार्क्सवाद का अध्ययन आधार बनता है। समाज और जीवन की समझ सहायक बनती है। बहुत बड़ा फलक है वहाँ। निजी चिंताओं को भी वह सामाजिक समस्या के बीच में रख कर पेश करते हैं। इसके विपरीत शमशेर अपने में डूबे हुए । प्रकृति उन्हें अपने अंदर ले जाती है। कवि का ‘मैं’ और उसकी कविता एक हो जाते हैं सब कुछ एक हो जाता है। अतीत की स्मृतियां, अपनी रचना प्रक्रिया, प्रकृति और अपनापन सब एकमएक हो जाते हैं। मुक्तिबोध बाहर जाते हैं, शमशेर अंदर। एक को रोशनी पसंद है दुसरे को अंधेरा। एक में समाज ही समाज, दूसरे में मैं ही मैं।
- इब्बार रब्बी
- इब्बार रब्बी
शमशेर की कविता
धूप कोठरी के आइने में खड़ी
धूप कोठरी के आइने में खड़ी
हँस रही है
पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कुराते
मौन आँगन में
मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ
एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
बहुत नन्हा फूल
उड़ गई
आज बचपन का
उदास मा का मुख
याद आता है।
शीतल वाणी
संपादक‘ डा. वीरेन्द्र ‘आज़म’
2 सी/175 पत्रकार लेन, प्रद्युमन नगर,
मल्हीपुर रोड, सहारनपुर, उ.प्र.
मोबाइलः 09412131404.
1 टिप्पणी:
sundar...ati sundar..!
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