बायें से- अरविन्द श्रीवास्तव, शहंशाह आलम, राजेन्द्र राजन, डा. इम्तियाज अहमद, डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. अली जावेद, शकील सिद्दीकी, अरूण कमल, कर्मेन्दु शिशिर और डा. व्रजकुमार पाण्डेय
कविता कभी मरेगी नहीं, अपनी भूमिका खुद तय करेगी- अरुण कमल. नीचे क्लिक करें..
अफ़सोस के लिए कुछ शब्द
लोकार्पण करते विधान पार्षद वासुदेव सिंह, राजेन्द्र राजन, अरुण कमल, अरविन्द श्रीवास्तव, डा.व्रजकुमार पाण्डेय एवं शहंशाह आलम
हिन्दी ब्लॊग प्रतिभा सम्मान-२०११
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री - रमेश पोखरियाल ’निशंक’ एवं वरिष्ठ कवि अशोक चक्रधर से सम्मान प्राप्त करते - अरविन्द श्रीवास्तव.
एक और दुनिया के बारे में
अरविन्द श्रीवास्तव की इस संग्रह की अधिसंख्य कविताएं समय की खुरदरे चेहरे एक ओर जहां बेनकब करती है, वहीं दूसरी ओर बहुत कुछ अनपे़क्षित के घटित यथार्थ को विवश हो कर देखते रह जाने की विडम्बना उजागर करती है इसमें संवाद की मुश्किलें है.कवि अकेला है, असहमत है, एक हद तक निरुपाय भी. उसके स्वभाव में संभावना निहित है. अरविन्द श्रीवास्तव इन्तजार के कवि है और उनके कुछ सपने भी है. उन्होंने निरन्तर आत्म-संघ्रर्ष से जो काव्य भाषा अर्जित की है वह एक सभ्य नागरिक बनने के खतरे से आगाह करती है. जीवित रहने की जो बुनियादी हरकतें है, अपनी तमाम हिकमतों के साथ यह कवि उसमे शामिल है. अरविन्द श्रीवास्तव के काव्य संसार में पिता के "चश्मा" के लिये खास जगह है तो "सुरक्षा परिषद" तक इनकी कवि दृष्टि पहुँचती है. जगह-जगह यह कवि कविता की स्वभाविक भाव-भूमि पर संचरण करता हुआ देखा जा सकता है, यों तो अरविन्द श्रीवास्तव खुद को एक अकवि के रुप में देखे जाने का प्रस्ताव करते हैं लेकिन मुझे लगता है कि हमारे समय की साजिश भरी चुप्पी के बर्वक्स उनकी कविताएं खुले विचार की तरह है. इनकी सादगी और सहजतासंरचना की मूल पूँजी है और निरीक्षण शक्ति भविष्य के एक मह्त्वपूर्ण कवि के रुप में इन्हें देखे जाने का आश्वासन देती है.- रेवती रमण
प्रतिभा का सम्मान
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*इ*तिहास के पन्नों में राजशाही और जमींदारों की बर्बरता और क्रूरता के किस्से
भरे परे हैं। लेकिन कई ऐसे अपवाद इतिहास से निकलकर सामने आते हैं तो मन
कौतूहलता ...
दोआबा/ अंक : 40
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*दोआबा *
समय से संगत
जनवरी-मार्च 2022
वर्ष 16 : अंक 40
*[ विशेष : नीलम नील की नायाब कथा डायरी ]*
*अनुक्रम *
अपनी बात
*स्मृति विशेष *
...
कोसी क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों का शोधात्मक अध्ययन
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कोसी क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों का शोधात्मक अध्ययन
ईसा के 623 वर्ष पूर्व बुद्ध का अर्विभाव हुआ था। महापंडित रहुल सांकृत्यायन
की ’बुद्धचर्या’ के अनुसार जब ...
बदमाश औरत
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कल से इक विवादास्पद लेखक की अपने किसी कमेंट में कही इक बात बार बार हथौड़े
सी चोट कर रही थी ...." कुछ बदमाश औरतों ने बात का बतंगड़ बना दिया ...."
बस वहीं इस क...
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डोमकछ
लोक नाटक “डोमकछ” बिहार में लगभग हर जगह करने की परंपरा थी, जो अब अपने उस स्थिति में नहीं है, कहीं-कहीं आज भी अवशेष के रूप में अंतिम सांस गिन रही है। इसकी मह्त्ता को भी स्वीकारने में लोगोंको कठिनाई होती है। डोम, जो समाज में सबसे नीचे के तपके में गिना जाता है, लेकिन जीवन का हर मत्वपूर्ण कार्य इनके बिना सभव नहीं है। धार्मिक और विभिन्न सस्कारों में इनकी उपादेयता और भी बढ़ जाती है। इस नाटक में वर्ण व्यवस्था का धज्जी उड़ाते हुए डोमिन को राजमहल में रानी के रूप में भी रहने की बात की जाती है। डा अनिल पतंग, मो- 09430416408
6 टिप्पणियां:
कोई बात नहीं. इतना तो भारत के किसी भी राज्य की सरकार उठा लेगी और कम पडा तो इसी आधार पर केन्द्र से अनुदान मांग लेगी.
Blog jagat me aapka swagat hai.
अच्छा लिखते हो
aapki is behtarin kavita k liye badhai
मामूली आदमी पर बड़ी बात।
जनचेतना की पैनी कविता।
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