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शनिवार

‘परिकथा’ का यह अंक…


परिकथा, अंक- मई-जून,(संपादक-शंकर, 96,बेसमेंट, फेज III इरोज गार्डन, सूरजकुंड रोड, नई दिल्ली-110044 मोबाइल-09431336275) इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि किसी साहित्यिक पत्रिका के लिए बीस अंकों का लंबा सफर तय करना, आज दुस्साहसिक कदम-सा है। हम इसे साहित्य के लिये मुट्ठी भर प्रतिबद्ध लोगों का जुनून भी कह सकते हैं, अमूमन साहित्यिक पत्रिकाएं आर्थिक दंश के आगे दो-चार अंकों में ही कराह उठती है, हम परिकथा के लिये लंबी आयु की मंगलकामनाएं कर सकते हैं…।
दूसरी बात यह कि पत्रिका के साथ – डा नामवर सिंह और असग़र वजाहत सदृश्य साहित्यिक व्यक्तित्वों का जु्ड़ना भी परिकथा को ‘एक जरुरी पत्रिका’ बना देती है।
और अंत में, परिकथा का यह अंक मेरे लिये इसलिए भी मह्त्वपूर्ण है कि इस अंक का आवरण चित्र (मुख्य पृष्ठ) मैने बनाया है…।
प्रतिक्रिया अपेक्षित

अरविन्द श्रीवास्तव, अशेष मार्ग, मधेपुरा-852113(बिहार) मो-094310 80862

सोमवार

शहंशाह ने दिया तोहफ़ा


अभी सप्ताह भर पटना में रहा, छोटी सी मुलाकात में शहंशाह आलम ने अपनी नयी पुस्तक ‘अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस’ भेंट किया। इसके पूर्व उनकी दो अन्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी है, ’गर दादी की कोई खबर आए’(1993) और ‘अभी शेष है पृथ्वी राग’ (1995)। अभी प्राप्त संग्रह में अच्छे संकेत दिखते हैं,- इसमें मुश्किल वक्त से गुजरते मानव-सभ्यता के लिये उत्साह और उम्मीद का पैगाम है। प्रस्तुत है ‘अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस’ से सायकिल शीर्षक कविता-

खेल-खेल में
ईजाद नहीं हुआ होगा
सायकिल का

लेकिन खेल-खेल में
सीख जाते हैं
सायकिल चलाना लड़के

दो

हमारे शरीर की तरह
पंचभूतों से ही बनी लगती है
यह सायकिल

सोचता हूँ भर जी सोचता हूँ
सायकिल सिर्फ़ सायकिल क्यों है
क्यों नहीं है
एक संपूर्ण देह
जिसमें कि
एक बेचैन आत्मा
वास कर रही है।

शुक्रवार

पटना से आयीं दो पुस्तकें

जहाँ देश के कुछ बड़े नगर बतौर साहित्यिक मंडी में तब्दील हो रहे हैं, बिहार की राजधानी अपनी उर्वर साहित्यिक परंपरा का निर्वाह करते हुए मंडीकरण की होड़ से खुद को बचाए रखा है। यहां से अभी प्रकाशित दो पुस्तकें क्रमश: बुतों के शहर में (कविता संग्रह) और दोआतशा (कहानी संग्रह) अपनी साज-सज्जा, छपाई व कलेवर में विश्व मानक से कम नहीं है।

दोआतशा (कहानी संग्रह), लेखक- सैयद जावेद हसन





कथाकार व संपादक सैयद जावेद हसन ने इस संग्रह में गुजरात दंगों के पहले और बाद राजनीतिक चालबाजियों को बेनकाव किया है, संग्रह की पहली कहानी 'सुलगते सफर में' तथा दूसरी कहानी 'छरहरी सी वो लड़की' , दोनों कहानियां गुजरात दगे के इर्दगिर्द घूमती है, कहानी को हकीकत मानने में बहस की गुंजाईश से इंकार नहीं किया जा सकता, लेखक का मकसद भी ऐसा ही दिखता है।

बुतों के शहर में( कविता संग्रह) लेखक- एम के मधु
सहज शब्दों मे लिखी गयी मानवीय सवेदनाओं को स्पर्श करती इस संग्रह में प्रकाशित कविताएं समय की चाक पर रची गयी है, जिसे नजरअंदाज
करना मुश्किल है, बेहद! " बुतों के शहर में" की कुछ पंक्तियां -
हम अखबार के फलक पर रेंगते रहे
स्याह तस्वीरों की धूल साफ करते हुए
तस्वीरें सामने थी-
एक हंसता खिलखिलाता बच्चा
दादा की अंगुली पकड़
स्कूल जा रहा था
अंगुली छुड़ा उसे जबरन उठा लिया गया
शहर चिल्लाता रहा
सायरन बजाती गाड़ियां दौड़ती रहीं…।



- प्रस्तुति: अरविन्द श्रीवास्तव




रविवार

विवशता


वह धीरे से सरका
करीब आया
हल्की मुस्कान के साथ
दबी किन्तु सख्त जुबान मे बोला-
' स्मैक लोगे ?'

मै कहता नहीं
तो भी मुझे लेना पड़ता ।
-अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा
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